एक राजकुमारी(अनु)
मै अमर नाथ...उम्र ७८ साल ...
आज अचानक मेरी कार के सामने एक औरत ( देखने के बाद लड़की तो नहीं कह सकता ) आ गई ...अगर वक़्त पर ड्राईवर ने ब्रेक ना लगाईं होती तो उसे कुछ भी हो सकता था .....मैंने कार से उतर के आस पास देखा ...मुझे कोई नज़ार नहीं आया...पास खड़े लोगो से पूछा तो सबने ''ना '' कहा की कोई नहीं जानता उसे....ड्राईवर की मदद से मैंने उसे कार की पिछली सीट पर लिटा दिया और मै खुद आगे ड्राईवर के साथ बैठ गया...और गाड़ी को घर की ओर मोड़ दिया | घर आते ही मैंने जोर जोर से सावित्री ...सावित्री आवाज़े मारनी शुरू कर दी ....सावित्री ..मेरी पत्नी ....जो कुछ दिन से बीमार थी ...और उसकी की दवा लेके मै घर आ रहा था ...तो ये हादसा हो गया ...मेरी आवाज़ सुन सावित्री ...बाहर आ गई ...और आते ही बोली ..''क्यों घर आते ही इस तरह शोर मचा देते हो ....अब आप दादा ...नाना बन चुके हो ...कभी तो घर में आराम से दाखिल हुआ करो ''........
''लो कर लो बात...मेरी बात सुनी नहीं और तुम शुरू हो गई हो ...पहले देख तो लो की हुआ क्या है फिर बोलना '' और मैंने इशारे से उसे कार के पास बुलाया ...वह पिछली सीट पर उस औरत को देख कर चौंक गई .....''हाय ...किसे उठा लाये ...जब देखो सड़क की हर मुसीबत को घर लेके चले आते हो ...पता नहीं कौन ..किस की जनी है ??किस की बीवी ..किसकी माँ ...कोई अता पता है क्या इस मुई का....देखो तो लाडली कैसे आराम से सो रही है ....बाप की कार है ना ......'' ये तो जब शुरू होती है तो बंद ही नहीं होती....सावित्री बड़ बड़ करती रही ..और मै उसको ड्राईवर की मदद से उठा का बच्चों के कमरे में ले आया ...|खेर कुछ देर देखा पर उसे होश नहीं आया ....मैंने फटाफट डाक्टर को फोन किया ...वो आ कार देख कर दवा देकर चला गया ....|
उसे होश तो आया ...पर वो अपना नाम नहीं बता पाई ....हम दोनों का प्रयास जारी था की किसी तरह उसकी पहचान हमहे पता चल जाये...पर हम असफल रहे ..जब भी उसे देखते तो ऐसा लगता की कोई मासूम सी बच्ची ..जो अभी अभी बचपन छोड़ किशोरी हो रही है ...हर किसी के साथ घुल मिल जाना ...सबसे बाते करना ....किसी को भी पकड़ के उसके साथ कभी लुक्का छिपी ....कभी ताश.....तो कभी भी लूडो खलने बैठ जाती और खूब हसंती ....और सबको अपने साथ बच्चा बना के ही दाम लेती ....मेरे सुने घर में जैसे बहार सी आ गई ..सावित्री का अकेलापन कैसे दूर हो गया पता भी नहीं चला ...बीबी मेरी थी ..पर तारीफ हर वक़्त उस अनजान की करती थी..
और मैंने देखा..की सावित्री ने उसका नाम भी रख दिया था...गुडिया...हां जी गुडिया ....थी भी वैसे ही...हर हरकत बच्चों जैसी ...लगता ही नहीं था की ये कोई ४०...४२ साल की औरत होगी ....उसका अपना कोई सामान उसके पास नहीं था ..वो मुझे पहले भी खाली हाथ ही मिली थी ...ऐसे कैसे पता चलता कि वो कौन है ....पर दिन प्रति दिन वो हम लोगो की बनती जा रही थी ...
कभी कभी ऐसे चुप कर जाती थी जैसे किसी बहुत गहरी सोच में बैठ का अपने मन का मंथन कर रही हो..और दूसरे ही पल ..फिर वही बचपन ...बातूनी इतनी की ..कभी कभी मुझे बोलना पड़ता की .......गुडिया चुप हो जा बेटू...बाबा के सर में दर्द हो गया ....तो भाग का अम्मा....अम्मा चिल्लाती और अपनी अम्मा से मेरे लिए तेल लेके आती ....और गाना गाती .......
सर दर्द बाबा का
आ आ मालिश
करूँ ....दबा दूँ
इतना की
बाबा को नींद आ जाये
बाबा सपनो में खो जाये
फिर एक परी
आएगी ..
बाबा की गोद में
समाएगी ...
बाबा करे उसे
प्यार .........
और फिर जोर से चिल्लाने लगती .......तेल मालिश ...तेल मालिश .......और जोर से हँसने लगती ......वो पहेली बनती जा रही थी ....हम दोनों के लिए ...उसके व्यवहार में मैंने एक बात और देखी की वो अपने हम उम्र के आदमी को देख मेरे पीछे छिप जाती थी ...जैसे वो उसे कटने दौड़ा हो या भाग का अंदर अपनी अम्मा के पास चली जाती ....घर कर हर काम करती ...भागती फिरती घर भर में ....सबका मन लगा हुआ था उस के साथ |आज गुडिय को मेरे घर आये ८ दिन हो गए थे ... आज मेरा जन्मदिन था ..और मै जानता था की मेरे दोनों बेटे आज घर जरुर आएँगे ....वो कहीं भी रहें...आज के दिन घर आते ही है ...मै जैसे ही अपने नित्य कार्यक्रम से निपट का अपने कमरे से बहार आया ...तो देखा गुडिया ....अपने ही बाग़ के फूलो का एक गुलदस्ता लिए मेरी और बड़ी आ रही थी ...और आते ही बोली ...बाबा.....जन्मदिन मुबारक हो ...मै हैरान रह गया की इसे कैसे पता ....मै कुछ पूछ पाता वो बोली ....आज पापा की याद आ गई ...आज उनका जन्मदिन होता है ...तो सोचा आपको मुबारक दूंगी तो ऐसा लगेगा की मेरी शुभकामनाएं मेरे पापा को मिल गई ...और अपनी गीली आँखे लिय वो मेरे सामने से हट गई ....और मै सोचता रहा....कि ये सब क्या है...सोची समझी साजिश या उसका भोलापन ......इस से पहले मै उस से कुछ पूछता ..अंदर से उसका शोर और बाहर....बच्चों की गाडी आ कर रुकी ....वो बात वैसी ही रह गई ...सबसे मिलने जुलने में ही वक़्त बीत गया....मेरे पोते पोतियों में गुडिया ऐसे मस्त हो गई जैसे उसके अपने बच्चे हों ...|
पूरा घर बच्चों की आवाजों से गूंज उठा ...आज मेरा सूना चार दिवारी का मकान ....घर बन गया था ...मेरे साथ साथ सावित्री भी बहुत खुश थी ...तभी बडे बेटे ने गुडिया के बारे में पूछा ...तो उसको भी मै कुछ नहीं बता पाया ..बस इतना ही कहा की हो सके तो अपनी बहन मान लो .....मै नहीं जानता की कौन है ..कहाँ से आई है ..
पर जब कार के आगे आई थी तो लगा था जैसे किसी अच्छे घर की बेटी या बहू है ...और मेरी आँखे भीग गई ये बात करते करते ...मैंने देखा..की विजय (मेरा बड़ा बेटा ) बहुत ध्यान से गुडिया को देख रहा है ...वो बोला ''पापा मुझे लगता है इसको मैंने पहले भी कहीं देखा है ''...उसकी बात सुन कर मुझे बिजली से भी तेज झटका लगा ...आँखे खुली रही और आवाज़ कहीं खो सी गई ....बहुत हिम्मत करके मैंने उस से कहा '''कहाँ देखा ..बोल बच्चे....इस नादान का है कोई ....वो भी इसके लिए परेशान होगा ....बोल ना बेटा...कौन है ये ...हम तो बहुत कोशिश कर चुके....थाने में भी रिपोर्ट करवा दी है...आज ८ दिन से किसी का कोई फोन नहीं ..इसका कोई आता पता नहीं ...''
''पापा ...पापा प्लीस आप शांत बैठो ....मुझे सोचने दो ....अभी कुछ दिन पहले ही तो ..???????''
'' हां पापा ...याद आया....मै और कपिल एक मीटिंग के लिए हरिद्वार गए थे ....वहां ये उसी कंपनी की तरफ से आई हुई थी जिन से हमारी मीटिंग थी ....बहुत अच्छे से बात की थी ...इसने हम सबका बहुत अच्छे से स्वागत भी किया था .....और आप जानते है... ...ये कविता भी लिखती है.....सबका स्वागत कविता से इसने ही किया था ...हम सबके ओनर में ....२ दिन की मीटिंग के बाद हम सब आ गए ....पर ये यहाँ कैसे ...ये मै भी नहीं समझा ''....''आप रुको ....मै कपिल को यहाँ बुलाता हूँ ...शायद वो हमारी कोई मदद कर सके ...'' और कुछ ही देर में कपिल भी हम सबके साथ था....ओह ...हां ........कपिल ...विजय का जिगरी यार .....बेस्ट फ्रेंड ...वो भी चहकता हुआ मेरे घर में प्रवेश हुआ .......और गुडिया को देखते ही ......उफ़ ...उस वक़्त उसकी शक्ल जो मैंने देखी...जो मैंने समझा...बहुत हद तक बात मेरी समझ में आ गई थी....कपिल की नज़रे बहुत कुछ बता रही थी...और गुडिया....कपिल को देखते ही चिल्लाने लगी ...और कुछ देर में चिल्लाते हुए बेहोश हो गई .....|
विजय ने कपिल को अलग कमर में किया और दरवाज़ा बंद करके ...जो बाते की ...वो हम सबको चौकाने वाली थी ....सारी कहानी....इसके .... छिपे पात्र ..और गुडिया की ये दशा मेरे सामने ...एक चलचित्र की तरह साफ़ थी ......ऐसा लगा की मेरी खुद की बेटी की ये दशा मेरे किसी अपने ने की है .....इतना दुःख मुझे....मुझे अपने किसी करीबी के मरने का नहीं हुआ था....जो आज मुझे कपिल की बातो से सच जान कर हुआ.......|
कपिल तो सर झुका के माफ़ी मांग कर चला गया...अब सच जान कर मै क्या करूँ....कैसे करूँ....दिमाग को जैसे लकवा मार गया......बच्चों के शोर से मुझे होश आया...
तब ये ही सोचा की जो बात कपिल ने बताई ...वो विजय और मेरे बीच ही रहेगी ...इस घर में और गुडिया के घर में इस बात को कोई नहीं जान पाएगा ....विजय को बहन की इज्ज़त का वास्ता देकर ...चुप रहने का वादा लिया .......और अपनी गुडिया के घर फोन किया .....|
गुडिया के पति को आने में ५ घंटे लगे ..और ये वक़्त मेरे लिए ऐसा था जैसे मेरे सामने मौत का खेल चल रहा है ..और मुझे ये भी नहीं पता की मै बचूंगा की नहीं ....|
आने वाला इंसान....अच्छे घर का लगा...बड़ी गाड़ी....सलीकेदार ड्राईवर ....और खुद भी महंगे कपडे ...कुल मिला के वो शख्स अमीर लगा ....आते ही मेरे पैर छुए ...और बोला...''अमरनाथ जी आप ही है ना......आपने ही मुझे फोन किया था ......मै..अनिल कुमार....नीरू का पति ''....हां नीरू ..(मेरी गुडिया का असली नाम )..''.और ये मेरी बेटी दिव्या...और बेटा दानेश ..कहाँ है नीरू ...५ दिन का बोलके गई थी ...की ऑफिस के काम से जा रही हूँ ...पर ऑफिस से पता किया तो वो बोले अभी और ५ दिन लगेगे ....और आज एक दाम से आपका फोन आ गया ....सब ठीक तो है...''
''हां हां सब ठीक है ...आप बैठे तो बेटा जी ....वो नीरू की मेरी कार से टक्कर हो गई थी ...ज्यादा नहीं बस थोड़ी कमजोरी है.....वो कुछ दिनों में ठीक हो जाएगी ...आप चाहे तो उसे घर लेके जा सकते है ''...मैंने अपनी बात को विराम देते हुए उनकी तरफ देखा ..उनकी आँखों से लगा की वो सब गुडिया से मिलने के इच्छुक है ....मैंने विजय को बुला कर उनके साथ गुडिया के कमरे में भेज दिया |
कुछ देर में अनिल...नीरू को लेकर चला गया....मेरी कोई बेटी नहीं थी ...आज ऐसा लगा की मैंने भी कन्यादान किया ...आज मेरी बेटी विदा हो कर ससुराल गई ..पर वो भी ऐसे...जो एक बाप कभी नहीं चाहेगा .....जाने से पहले गुडिया मेरे गले लग कर रोई...और बोली बाबा.....क्या मै आपकी गुडिया बन के फिर आ सकती हूँ यहाँ इस घर में ......और मैंने उसके सर पर हाथ रखते हुए आशीर्वाद के साथ यहाँ फिर से ...बार बार आने का निमंत्रण दे डाला ...की ये उसका मायका है वो कभी भी आ सकती है ....पर जाने से पहले उसने मिलने के बहाने मुझे छिप कर हाथ में एक कागज़ पकड़ा दिया...जिसको मैंने सब से छिपा अपनी जेब में डाल लिया |
सब चले गए ....मेरा घर....फिर से मकान बन गया...सिर्फ ईंट पत्थर का मकान ..जहाँ मै और सावित्री रहे गए ...एक नये इंतज़ार में...की कौन सा मौका आएगा की इस मकान में फिर सब एक साथ होंगे ...खेर...जाते वक़्त जो कागज़ का टुकड़ा गुडिया ने दिया वो निकाल के मै पढने लगा उस में लिखा था '''बाबा ...मै जानती हूँ आप और विजय भाई मेरा सच जान गए है ......पर बाबा मेरा यकीन करना इन दिनों में मुझे सच में कुछ भी याद नहीं था ...कुछ वक़्त के लिए मै भूल चुकी थी की मै कौन हूँ ..बाबा...अगर आप सच में मुझे अपनी बेटी मानते है तो उस कपिल का सच उसकी बीबी के सामने जरुर रखना....आज उसने मुझे बर्बाद कर दिया....दोस्ती करके करीब आया...और मेरे ही विश्वास का खून करके....मेरी इज्ज़त लूट कर ...मुझे नशा देकर मरने के लिए सड़क पर फ़ेंक दिया ....और नशा भी ऐसा की मै अपनी ही सुध खो बैठी ....मै तो खुद को नहीं बचा पाई ...पर मन में एक आग है...की कपिल फिर से ऐसा किसी लड़की ...किसी औरत के साथ ना करे....आपने अनिल से ये सच छिपा लिया .... पर कब तक बाबा.....वो मै खुद नहीं जानती .....बाबा.....मुझे इन्साफ दिला दो ....ये विनती है आपकी गुडिया की ....बाबा अगर आपका मन कहें की कपिल को सज़ा मिलनी ही चाहिए तो मैंने उसके खिलाफ सारे सबूत...अपने कमरे में रख दिए है ....बस इतना ही कहूँगी .............
एक राजकुमारी
जिसके सपनो मेंअब आंसू है
जो मिले है उसे
किसी की कुटिलता
भारी बातो सेक्यूंकि ....
वो नारी है ...
पत्नी और माँ है
बहन है किसी की
बंदिशों में बंधी है उसकी
हर उड़ान मन की
पंख है ..पर
उड़ना नहीं चाहती
उन्मुक्त आकाश में
तोड़ कर जंजीरे इस ..
अपने प्यारे से
जहान की ...
एक सपना झूठा सा
जीने का विश्वास दे गया
पांवों में बांध बेड़ियाँ
जिन्दगी भर
कांटो भारी राह पर
चलने का आभास दे गया
नयनो में चुभ गए
मेरे खुद के आंसू
कदम बढ़ाते ही आगे को
फिसले पाँव गीत -घट फूटा
झुलस गई लतिका तरुणाई
बिखर गया मन का श्रृंगार
इच्छा है मन की
कि
तट मेरा ना
मझधार बने
स्नहे -छावं ना छूटे
और ना उनकी छाया
पथ में मेरे
अंगार बने .......(बाबा...आपकी गुडिया )
गुडिया का वो मुड़ा....हुआ कागज़ पकड़े...मै यूँ ही ज़मीन पर बैठ ना जाने क्यों रो पड़ा ...मेरे मन की पीड़ा मुझे से सही नहीं जा रही थी....तो उस फूल सामान औरत का क्या हाल हुआ होगा ....जो कुछ दिन पहले किसी की हवस का शिकार हुई ...जिस में उस औरत का कोई दोष भी नहीं था ...उसने उसके शरीर से नहीं ..उसकी आत्मा ..उसके विश्वास ..उसकी दोस्ती..का बलत्कार किया था ...उसी वक़्त मैंने अपने मन और वचन से खुद से ये वादा किया कि मै कपिल की पत्नी को उसके सच से रूबरू जरुर करवाऊंगा ...ताकि आगे से कोई गुडिया....कोई औरत उसकी हवस का शिकार ना बने |
और ४ दिन के इंतज़ार के बाद मैंने गुडिया को फोन किया ......और कहा...''बेटू..तुम्हारे बाबा ने तुम्हारा मान रख लिया ...अब कभी भी अपने बाबा के घर तुम सर उठा के आ जाना'' ||
Friday, July 29, 2011
एक राजकुमारी ...............(सबकी एक कहानी )
Tuesday, July 26, 2011
जिन्दगी के कुछ अलग अलग रंग...
जिन्दगी के कुछ अलग अलग रंग...
१...
एक फूल की नियति देखो
बार बार
भौंरे आते है
पूरा रस निचौड़ कर
उड़ जाते है
एक दिन का यौवन
उस फूल का
अगले ही दिन वो
मुरझा के टूट
जाता है ...
फिर से खिल जाने को ....
२
एक मूर्तिकार
शिल्पकार ..
जन्मदाता एक
मूर्ति का
तराशा ...सजाया
अपने हाथो से
रंगों से प्राण फूंके
पर पेट की भूख
यहाँ भी भारी
खुद की कृति को
बिकवा के ही
ये भूख है मानी .............
३
विचारो की असमानता
धन की अधिकता
बदली हवा
नशे की लत
बहकता घर का मुखिया
सस्ते शराब से
भी रिश्ते
घर अपना ही
लुटा रहा
घर का ही भागीदार
मानवता का मुख
काला करता
समय बुरा
उसका नतीजा
इस जीवन से
हार कर पहुंचे ...
पारिवारिक विघटन तक ||
(अनु )
Saturday, July 23, 2011
दादा जी का चश्मा .....एक उपहार उनके जन्मदिन का
(एक सोच १५ साल के बच्चे की ...जिसको बस शब्द देने भर की कोशिश की है )
दादा जी का चश्मा .....एक उपहार उनके जन्मदिन का
दादा जी का चश्मा .....एक उपहार उनके जन्मदिन का
आज मेरे दादा जी का ७५ वां जन्मदिन है ....पर दादा जी आज बहुत उदास है ....मै जानता हूँ की मेरे दादू ...आज दादी को बहुत मिस कर रहे है क्यूंकि दादी हम सबको छोड़ कर भगवान जी के पास चली गई है मेरा नाम आर्य है ...मै क्लास दस (१०) में पढता हूँ ... ...तब से दादा जी बहुत अकेले हो गए है ....पापा उनको अपने साथ काम पर लेके जाते है पर वहां भी उनका मन नहीं लगता ...तो वो रोज़ जल्दी आ कर ..अपने कमरे में बैठे रहते है ...मै और मेरा छोटा भाई ...दिवाकर ...बहुत कोशिश करते है की दादू का मन घर पर लगा रहे ...वैसे तो दादू का नेचर (व्यवहार ) बहुत अच्छा है ...सबसे हँसते बोलते है ...हम लोगो के साथ खाली वक़्त में खेलते भी है....पर आज कल नहीं ...
दादी जी के जाने से पहले दादू को कुछ कुछ भूलने की बीमारी हुई थी ...जिसकी वजह से वो भी कभी कभी परेशान हो जाती थी ...पर हम सब मिल कर इस बात को संभाल लेते थे ...पर यहाँ कुछ वक़्त से ये बीमारी कुछ ज्यादा हो गई है ....खा कर भूल जाएंगे ...अपना कोई भी सामना रख कर भूल जाएंगे .....दादा जी की इस आदत से हम सभी परेशान तो थे...पर वक़्त वक़्त पर उनको प्यार से समझाते भी थे ...कभी कभी मम्मी ...झुंझलाहट में कह भी देती थी की ...मै २ नहीं ३ बच्चे संभाल रही हूँ ...तब मै और दिवाकर खूब हँसते थे ...मम्मी की इस बात पर ...कुछ कुछ बाते जो मम्मी और पापा किया करते थे वो हम लोगो को समझ नहीं आती थी ...और ना ही हमने कभी उनको समझने की कोशिश की
मै और दिवाकर दादू के लिए ..उनके जन्मदिन पर गिफ्ट देने के लिए उनकी नज़र के २ चश्मे बनवा के लाये थे ...अपनी जेब खर्ची से ...मम्मी पापा दोनों ही ये बात नहीं जानते थे ...और आज जब दादू को सरप्राइज़ देने का वक़्त आया तो वो दोनों चश्मे मिलने का नाम ही नहीं ले रहे थे ....हम दोनों ढूंढ़ ढूंढ़ के परेशान हो गए ..पर वो चश्मे नहीं मिले .....हम दोनों ही उदास हो कर बैठ गए ...उम्मीद छोड़ दी की अब वो चश्मे हमको मिलेगे .....बार बार हम दादू के कमरे में जाते ..और उनसे बात कर के आ जाते ...पर दादू वैसे ही अपनी कुर्सी पर बैठे वही अपने वक़्त के पुराने संगीत को सुन रहे थे पापा भी वक़्त पर आ गए ...और सीधा दादू के कमरे में जा कर उनके पाँव छू कर उन्हें ...जन्मदिन की शुभकामनायें दी ..दादू ने आस भरी नज़रो से देखा तो जैसे कहें रहे हो की कहाँ है मेरा गिफ्ट .....पापा ने तो मम्मी और अपनी तरफ से गिफ्ट निकाल कर उनको दे दिया जो वो अपने साथ लेके आये थे ....अब बारी हम दोनों भाइयों की थी ...हम क्या करते...हम तो अपना गिफ्ट कहीं रख कर भूल गए थे .....इस से पहले हम दोनों कुछ बोलते ..दादू हँसते हुए बोले " बच्चों ...तुम्हारा गिफ्ट मेरे ही पास है ...तुम निराश नहीं हो ...वो चश्मे मैंने ही तुम्हारी अलमारी से निकले है ....मैंने कल ही तुम्हे छिपाते हुए देख लिया था ....मुझे से रहा नहीं गया ...तो एक ये छोटा सा मजाक मैंने भी किया तुम दोनों के साथ "' इतना कहते ही दादू ने हम दोनों को खूब सारा....... प्यार किया ....और पता नहीं कौन कौन सा आशीर्वाद दे दिया ...उनकी आँखे नाम थी ...वो बोले ...आज तुम दोनों ने मुझे मेरी नई आँखे (चश्मा ) देकर ..मुझे एक नई ख़ुशी दी है बच्चों...जिसको मै ता उम्र नहीं भूलूंगा " दादी के जाने के बाद आज पहली बार दादू को खुश ..और माँ..पापा के चहेरे पर एक अजीब से तसल्ली देखी ....वो अपने दिए संस्कारो से खुश थे ...और हम दोनों भाई ....दादू और पापा मम्मी को खुश देकर कर ही खुश थे
(अनु)
दादी जी के जाने से पहले दादू को कुछ कुछ भूलने की बीमारी हुई थी ...जिसकी वजह से वो भी कभी कभी परेशान हो जाती थी ...पर हम सब मिल कर इस बात को संभाल लेते थे ...पर यहाँ कुछ वक़्त से ये बीमारी कुछ ज्यादा हो गई है ....खा कर भूल जाएंगे ...अपना कोई भी सामना रख कर भूल जाएंगे .....दादा जी की इस आदत से हम सभी परेशान तो थे...पर वक़्त वक़्त पर उनको प्यार से समझाते भी थे ...कभी कभी मम्मी ...झुंझलाहट में कह भी देती थी की ...मै २ नहीं ३ बच्चे संभाल रही हूँ ...तब मै और दिवाकर खूब हँसते थे ...मम्मी की इस बात पर ...कुछ कुछ बाते जो मम्मी और पापा किया करते थे वो हम लोगो को समझ नहीं आती थी ...और ना ही हमने कभी उनको समझने की कोशिश की
मै और दिवाकर दादू के लिए ..उनके जन्मदिन पर गिफ्ट देने के लिए उनकी नज़र के २ चश्मे बनवा के लाये थे ...अपनी जेब खर्ची से ...मम्मी पापा दोनों ही ये बात नहीं जानते थे ...और आज जब दादू को सरप्राइज़ देने का वक़्त आया तो वो दोनों चश्मे मिलने का नाम ही नहीं ले रहे थे ....हम दोनों ढूंढ़ ढूंढ़ के परेशान हो गए ..पर वो चश्मे नहीं मिले .....हम दोनों ही उदास हो कर बैठ गए ...उम्मीद छोड़ दी की अब वो चश्मे हमको मिलेगे .....बार बार हम दादू के कमरे में जाते ..और उनसे बात कर के आ जाते ...पर दादू वैसे ही अपनी कुर्सी पर बैठे वही अपने वक़्त के पुराने संगीत को सुन रहे थे पापा भी वक़्त पर आ गए ...और सीधा दादू के कमरे में जा कर उनके पाँव छू कर उन्हें ...जन्मदिन की शुभकामनायें दी ..दादू ने आस भरी नज़रो से देखा तो जैसे कहें रहे हो की कहाँ है मेरा गिफ्ट .....पापा ने तो मम्मी और अपनी तरफ से गिफ्ट निकाल कर उनको दे दिया जो वो अपने साथ लेके आये थे ....अब बारी हम दोनों भाइयों की थी ...हम क्या करते...हम तो अपना गिफ्ट कहीं रख कर भूल गए थे .....इस से पहले हम दोनों कुछ बोलते ..दादू हँसते हुए बोले " बच्चों ...तुम्हारा गिफ्ट मेरे ही पास है ...तुम निराश नहीं हो ...वो चश्मे मैंने ही तुम्हारी अलमारी से निकले है ....मैंने कल ही तुम्हे छिपाते हुए देख लिया था ....मुझे से रहा नहीं गया ...तो एक ये छोटा सा मजाक मैंने भी किया तुम दोनों के साथ "' इतना कहते ही दादू ने हम दोनों को खूब सारा....... प्यार किया ....और पता नहीं कौन कौन सा आशीर्वाद दे दिया ...उनकी आँखे नाम थी ...वो बोले ...आज तुम दोनों ने मुझे मेरी नई आँखे (चश्मा ) देकर ..मुझे एक नई ख़ुशी दी है बच्चों...जिसको मै ता उम्र नहीं भूलूंगा " दादी के जाने के बाद आज पहली बार दादू को खुश ..और माँ..पापा के चहेरे पर एक अजीब से तसल्ली देखी ....वो अपने दिए संस्कारो से खुश थे ...और हम दोनों भाई ....दादू और पापा मम्मी को खुश देकर कर ही खुश थे
(अनु)
Monday, July 18, 2011
क्या पाया क्या खोया है ....
क्या पाया क्या खोया है ....
कभी सोचा था कि
वक़्त को कसके मुट्ठी
में बांधूंगी !
ये जानते हुए भी -
ना वक़्त रुकता है
न रात रूकती है
ना रुके ये सुबह
न दिन न शाम .........
फिर भी यादे है कि
सफ़ेद हँस सी चली आती है
खोजती है बसेरा ..वो मन की
तेज़ी -ए-रफ़्तार में .....
वक़्त हाथो से
खिसकता रहा
जो कल थे बच्चे
आज वो जवाँ हो गए
अकेले रास्तो में चल रहा
सूरज भी थक गया ....
रोशनी भी मन की
संकरी गलियों
में भटक गई
बताने लायक बात
गले में अटक गई ....
कैसी रात सन्नाटे
भरी आ गई
हाथ अपने पसारे ही
दिखते नहीं...
सोचते सोचते सर
फट गया ..
कैसे सुलझाये उलझे
संबंधो के धागे
सुलझते सुलझते कहीं ये
अलग अलग ना हो जाए .
कैसे मन का द्वेष मिटेगा
अपनों से ..
कहीं उनके मन का
प्रेम ही
ना मर जाए ...
ये तो कैसा खेल समय
के सकुनी का
जिसके पासो की
चाल समझ ना आती .....
कहना है जो बात
वो कही ना जाती ...
ऐसा भवर उठा मन मे
की सागर
भी बेहाल हुआ
कैसी राते काली है
ये मेरे जीवन की
जिनमे पता नहीं
क्या पाया क्या खोया है .....?
(अनु )
कभी सोचा था कि
वक़्त को कसके मुट्ठी
में बांधूंगी !
ये जानते हुए भी -
ना वक़्त रुकता है
न रात रूकती है
ना रुके ये सुबह
न दिन न शाम .........
फिर भी यादे है कि
सफ़ेद हँस सी चली आती है
खोजती है बसेरा ..वो मन की
तेज़ी -ए-रफ़्तार में .....
वक़्त हाथो से
खिसकता रहा
जो कल थे बच्चे
आज वो जवाँ हो गए
अकेले रास्तो में चल रहा
सूरज भी थक गया ....
रोशनी भी मन की
संकरी गलियों
में भटक गई
बताने लायक बात
गले में अटक गई ....
कैसी रात सन्नाटे
भरी आ गई
हाथ अपने पसारे ही
दिखते नहीं...
सोचते सोचते सर
फट गया ..
कैसे सुलझाये उलझे
संबंधो के धागे
सुलझते सुलझते कहीं ये
अलग अलग ना हो जाए .
कैसे मन का द्वेष मिटेगा
अपनों से ..
कहीं उनके मन का
प्रेम ही
ना मर जाए ...
ये तो कैसा खेल समय
के सकुनी का
जिसके पासो की
चाल समझ ना आती .....
कहना है जो बात
वो कही ना जाती ...
ऐसा भवर उठा मन मे
की सागर
भी बेहाल हुआ
कैसी राते काली है
ये मेरे जीवन की
जिनमे पता नहीं
क्या पाया क्या खोया है .....?
(अनु )
Wednesday, July 13, 2011
आज की ताज़ा खबर
आज की ताज़ा खबर
टीवी का शोर
दिमाग है गोल
लिखने का है मन
पर सूझता नहीं कुछ
कैसे कुछ सोचूं
कैसे कुछ नया लिखूं
यहाँ तो बस
नई पुरानी फिल्मो का
है संग
अमिताभ के गाने
संजय दत्त की
ढिशुम ढिशुम
गोविदा के लटके
झटके
हाय अब मै क्या करूँ
न्यूज़ चैनल पर रुकता
रुमोट
फिर वही धमाको से गूजां
मुंबई अपना
फिर हुए सीरियल
धमाके
देखा लाशो का
ढेर
दहकी मुंबई सारी
गूंजी सब तरफ
घायलों की चीखे
फिर शुरू हुई
पुलिस की भाग
दौड़ ...
लग गई
फिर से नाकाबंदी
शुरू हो जाएगी
नेतायों की ...
बयानबाज़ी ...
राजनीती के गलियारे में
शुरू हो जायेगा
अब
आरोपों का दौर .....
ये है आज की
ताज़ा खबर ............
टीवी का शोर
दिमाग है गोल
लिखने का है मन
पर सूझता नहीं कुछ
कैसे कुछ सोचूं
कैसे कुछ नया लिखूं
यहाँ तो बस
नई पुरानी फिल्मो का
है संग
अमिताभ के गाने
संजय दत्त की
ढिशुम ढिशुम
गोविदा के लटके
झटके
हाय अब मै क्या करूँ
न्यूज़ चैनल पर रुकता
रुमोट
फिर वही धमाको से गूजां
मुंबई अपना
फिर हुए सीरियल
धमाके
देखा लाशो का
ढेर
दहकी मुंबई सारी
गूंजी सब तरफ
घायलों की चीखे
फिर शुरू हुई
पुलिस की भाग
दौड़ ...
लग गई
फिर से नाकाबंदी
शुरू हो जाएगी
नेतायों की ...
बयानबाज़ी ...
राजनीती के गलियारे में
शुरू हो जायेगा
अब
आरोपों का दौर .....
ये है आज की
ताज़ा खबर ............
(अनु)
Tuesday, July 12, 2011
बचपन हमारा
बचपन हमारा
खुले खेत ..
कच्ची पगडण्डी
खेतो में पानी
लगती फसल
उस राहा...भागता
बचपन हमारा
पेड़ पर झूला
रुक कर उस में ..
झूलता बचपन हमारा
अमुया का पेड़ ..
पेड़ की छाया
बसते को फेंकता
बचपन हमारा
रुक कर उस में ..
झूलता बचपन हमारा
अमुया का पेड़ ..
पेड़ की छाया
बसते को फेंकता
बचपन हमारा
कच्ची अम्बी
झुकती डाली
डाल पे कूकती
कोयल काली काली
शरारत में
आम तोड़ता
बचपन हमारा
टाट की झोंपड़ी
धूप और बरसात से
खुद को और बच्चे को
छिपती एक माँ
हमारी जेब में
उछलते कन्चे
उस संग खेलता
कूदता बचपन हमारा
बेपरवाह ...सबसे
ट्रेक्टर की आवाज़
दोस्ती की डगर
उस पर हाथ पकड़
चढ़ता बचपन हमारा
दूर बजती विद्धालाये की घंटी
मास्टर जी की याद
आती छड़ी
विद्धालाये की ओर
भागता बचपन हमारा
मास्टर जी की क्लास
छिप छिप कर बैठते
हम ...
२ दुनी ४ की
भाषा में
कहाँ लगा अपना मन
खुली खिड़की से
झांकता ये स्वतंत्र मन
कभी आकाश के बादल
बादलों से आँख मिचौली
खेलते सूरज के
दुर्लभ दर्शन ..
तो कभी उडती
चिड़ियाँ को
गिनता ये बचपन
खुद की दुनिया को
बुनता और खो जाने वाला
ये बचपन .....
तभी पड़ी ...मास्टर जी छड़ी
तो वर्तमान में लौट के
आता ये बचपन .....
छिप छिप कर बैठते
हम ...
२ दुनी ४ की
भाषा में
कहाँ लगा अपना मन
खुली खिड़की से
झांकता ये स्वतंत्र मन
कभी आकाश के बादल
बादलों से आँख मिचौली
खेलते सूरज के
दुर्लभ दर्शन ..
तो कभी उडती
चिड़ियाँ को
गिनता ये बचपन
खुद की दुनिया को
बुनता और खो जाने वाला
ये बचपन .....
तभी पड़ी ...मास्टर जी छड़ी
तो वर्तमान में लौट के
आता ये बचपन .....
(अनु.)
Saturday, July 9, 2011
मै.......
मै हसंती बहुत हूँ ना
थोड़ी सी पागल ,
थोड़ी सी दीवानी
थोड़ी सी शोखी
से भरी
फिर उसी पल
कुछ उदास सी
थोड़ी थोड़ी
नादान सी
ओर पल में
समझदार भी
कैसे कहूँ खुद को
कि मै क्या हूँ
कुछ कुछ प्यासी सी
खुद में भरी हुई सी
कुछ कुछ खुद से
दहकती हुई सी
खुद से नाराज़ ..
खुद को मानाती
हुई सी
पलो के जिन्दगी को
खुद में सहजती हुई सी
मै
बोलती आँखों की भाषा.
सोचती आँखों का सपना
सपनो की दुनिया में
सच का आईना हूँ
जो समझे इस दिल को
उसकी प्रीत हूँ
ना समझने वालो के लिए
सिर्फ अतीत हूँ...
यादो के संसार की
एक चकोर हूँ
बिन बोले मन में बस
जाने वाली चितचोर हूँ
सखी हूँ तुम्हारी...
दूर हूँ तुम से फिर भी
दिल के करीब हूँ...
दिल में धड़कन सी ही नहीं
धड़कन हूँ
तुम्हारी हर सोच में बसी
एक सोच हूँ
मै ...........(अनु)
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