Saturday, January 25, 2014

नेता और राजनीति


अपने नेताओं में 
पहले जैसी बात कहाँ 
बिन मांगे मिल जाए इंसाफ
अब वो हालत कहाँ

वक़्त के साथ साज़ बदल रहे 
देश में गद्दार बढ़ रहे 
हो रही कुर्सी की होड़ यहाँ 
अब ईमान की
वैसी रात कहाँ 
पहले जैसी बात कहाँ

 


राज़ की बाते राज़ रही
गँवारो के हाथों 
हमेशा सरकार रही
इस देश में अब
पहले जैसी बात कहाँ

बुत बने बैठे हैं

सरकारी अफसर और
रहनुमा यहाँ
विषैली राजनीति में
धरणों की भरमार यहाँ
फिर भी धुल जाते 
सारे पाप यहाँ
अब,पहले जैसी बात कहाँ


कैसा ये गणतन्त्र है

कैसी है ये स्वतन्त्रता
लेश मात्र भी किसी नेता को
कोई लज्जा नहीं  

ना पाप का अहसास है
ना है आदमी असली
मौत भी बेरंग नहीं
बढ़ रहा छल पल पल यहाँ
अब पहले जैसी बात कहाँ ||

                                                             

Sunday, January 19, 2014

चन्द्र्कान्त देवताले जी से एक मुलाक़ात ....14 दिसंबर 2013









उज्जैन यात्रा के दौरान हमें  (मैं, विजय सपपत्ति और नितीश मिश्र ) चन्द्रकान्त देवताले जी से मुलाक़ात करने का सौभाग्य मिला  | बेहद सरल स्वभाव का व्यक्तित्व लिए हुए वो हमें लेने अपनी गली के नुक्कड़ तक आए | बेहद आदर भाव से अपने घर के आँगन में बैठाया |शालीन स्वभाव और ठहरा हुआ व्यक्तित्व,ऐसा पहली बार देखने को मिला | स्वभाव से हंसमुख .76 साल की उम्र में भी गजब का जोश देखते ही बनता था | एक साहित्यिक चर्चा जिसके अंतर्गत बहुत सी बातों पर हम लोगों की बातचीत एक चाय के दौर के साथ शुरू और चाय खत्म होने के साथ ही खत्म हो गई |उसी चर्चा का एक हिस्सा आप सभी के साथ यहाँ सांझा कर रही हूँ .........

हम तीनों का एक जैसा ही सवाल था जो पूछा विजय सपपत्ति ने कि आज के लेखन और लेखक/लेखिका की परिभाषा क्या है ?

देवताले जी
आप खुद ही देखे वक़्त बादल रहा है और वक़्त के मुताबिक लेखन में भी बदलाव आना बेहद जरूरी है | जिस तरह वक़्त के साथ साथ समाज बदल रहा है उसी को लेकर लेखन में भी बदवाल आ रहे हैं |उन्मुक्तता और सेक्स को लेकर आज बहुत सी कविता और कहानी का लेखन, लेखकों द्वारा पढ़ने को मिल रहा है |कुछ साल पहले तक सेक्स के विषय पर बात करना भी बुरा माना जाता था, वहीं आज खुले तौर पर इसे लिखा जा रहा है |लेखक या लेखिका अब इस फर्क को अपनी लेखनी से मिटाते जा रहे हैं, बात ओर गंभीर तब हो जाती है जब एक औरत इस विषय पर लिखती है और उसे टिप्पणी के तौर पर गालियाँ और बहुत कुछ अनाप=शनाप सुनने और पढ़ने को मिलता है|बहुत सी लेखिकाएँ जो नयी है और ऐसा वैसा अपने खुलेपन (बोल्डनेस) की वजह से लिख तो देती है पर बाद में खुद ही सबसे बचती फिरती हैं .....ऐसे भाई ...ऐसा लिखना ही क्यों कि सबसे नज़ारे बचानी पड़े (ओर एक ज़ोर सा ठहाका लगा कर वो हँस पड़ते है )

देवताले जी ने अपनी बात को ज़ारी  रखते हुए कहा कि ....
कैसी विडम्बना है कि हिन्दी साहित्य अलग अलग खेमों में बंटा हुआ है | भारतीय साहित्यकार, प्रवासी साहित्यकार या स्थानीय साहियत्कार | पर ये बात समझ में नहीं आती कि लेखन को अलग अलग क्षेत्र में कैसे बाँटा जा सकता है | जितना सबको सुना और समझा ....बस ये ही बात समझ आई कि भावनाएँ  सब की एक जैसी है पर अनुभव अलग अलग जिस के आधार पर हर कोई लिखता आ रहा है और उसी पर आज तक लेखन टीका हुआ है|

बहुत बार मैंने एक बात को बहुत ही गहराई से महसूस किया है और वो ही बात, मुझे उस वक़्त बहुत दुखी कर जाती है कि जब कोई लेखक या लेखिका, किसी को जाने बिना उस पर किसी भी बात को लेकर दोष मढ़ने लगते हैं | कोई अच्छा लिख रहा है तो इस बात से परेशानी, कोई शांत रह कर काम करता है तो परेशानी,किसी को भी सम्मान मिले तो बेकार का होहल्ला |ये कैसा लेखक वर्ग है जो पढ़ा लिखा होने के बाद भी किसी की भावनाएँ नहीं समझता |
कविता कहानी लिखने वाले दिल से इतने कठोर कब से और कैसे हो जाते हैं कि किसी की भी उसकी पीठ के पीछे बुराई करने से भी गुरेज नहीं करते ''फलां ने ऐसा कर दिया .....देखो तो फलां ने कैसा लिखा है ..उफ़्फ़ रे बाबा ....पता नहीं कैसे हँस कर सबको पटा लेती है या यार! वो ''सर'' को कितना मस्का मारता है या कितना मस्का मारती होगी ''.....आदि आदि | ऐसी ही कितनी बाते हैं जो आते जाते सुनने को मिल जाती हैं |पर मेरा बस इतना ही कहना है कि ''अरे रे बाबा! किसी की भी परिस्थिति जो जाने बिना, उस पर किसी भी तरह की कोई भी टिप्पणी मत करें |

टिप्पणी करने वाले/वाली की बुद्धि पर तब ओर भी हंसी आती है जब वो पूरी तरह से सच से आवगत हुए बिना सबके आगे  किसी दूसरे के सच  को सांझा करने की कोशिश करते हैं |अरे भाई! सच का तो जाने दीजिये....सबके लिए उसके विचार  कैसे हैं, ये तक उसे नहीं पता होते और वो दावा करते हैं पूरे सच को उजागर करने का |बुराई करने वाले ये नहीं जानते कि कब किसी की कोई भी कृति कालबोध बन जाए....इस बात को कोई नहीं जानता |
मुझे आज.भवानी प्रसाद मिश्र जी की ये पंक्तियाँ बरबस यूं ही याद आ गयी
अनुराग चाहिए
कुछ और ज्यादा
जड़-चेतन की तरफ /लाओं कहीं से थोड़ी और |
निर्भयता अपने प्राणों में |
बस ये ही सोचता  हूँ कि काश बेकार की बातें  करने वालों ने कभी अपनी सोच का  रचनात्मक उपयोग करने की सोची होती तो वो लोग आज अपने लेखन को शिखर पर पाते  |

इस पर मैंने उनसे पूछा ....''दादा'' आप अभी तक कहाँ कहाँ गए हैं और किन किन साहयित्कारों से मिलें हैं ?
तो उनक जवाब ये था कि ......
मैं अपनी नौकरी के दौरान लगभग पूरा हिंदुस्तान घूम चुका हूँ और अभी तक जहाँ-जहाँ जाना हुआ....वहाँ के जन समूह और उसको लीड करने वाले अलग अलग साहित्यकारों से मेरी मुलाक़ात हुई है   | हर क्षेत्र के लोग, उनकी सोच, वहाँ के रहन सहन के मुताबिक ही मिली | मैंने इस बात को बहुत ही गहराई से समझा है कि किसी की बात का किसी से तालमेल ही नहीं होती | एक बुद्धिजीवी वर्ग है, जिसकी अपनी ही दुनिया है, अपने ही लोग है और एक सीमित दायरा है,जो फालतू बोलने में विश्वास नहीं करता पर करता अपने मन की है |फिर भी वो अपना काम करते हुए बहुत अच्छा लिख रहे हैं, उन सबका साहित्य में अपना एक मुकाम है |
ऐसा मेरा अपना खुद का निजी अनुभव है जैसे अलग अलग धर्मगुरु हैं और उनके अलग अलग भक्त ....वैसे ही साहित्य में भी हर साहित्यकार की अपनी ही सोच और अपनी ही विचारधारा है, जो उनके लेखन को एक अलग ही पहचान प्रदान करती है |

और नितीश मिश्र का एक आखिरी सवाल था ....दादा क्या कविता कहानी लिखने का कोई उचित समय हैं ? कई लोगों  से सुना है कि वो सुबह के वक़्त तरोताज़ा होते हैं इस लिए वो सुबह के वक़्त ही लिखते हैं ?
 

इस पर एक बार फिर वो ठहाका लगा कर हँसते हुए हम तीनों से कहते है कि
क्या कविता लिखना या कहानी लिखना किसी स्कूल के चेप्टर जैसा है कि उसे याद किया और रटा मार कर सुबह के वक़्त लिख दिया | अरे भाई लेखन को वक़्त में मत बांधो, वो तो खुली हवा है उसका अहसास करो और अपने शब्दों में उतारों | अपने शब्दों को जीना सीखो, तुम शब्दों में जीओ और शब्द तुम्हें जीवन में शालीनता से कैसे लिखा और जिया जाता है वो अपने आप सीखा देंगे सीखा देंगे |''


हम सबकी चाय के साथ साथ बातचीत भी यही समाप्त हो गयी और चलते चलते देवताले जी ने अपनी इस पुस्तक को भेंट करके हम सबका बहुत खूबसूरती से सम्मान किया |इनके लिए आभार जैसे शब्द भी बहुत छोटे पड़ जाते है |


 अपनी कविताओं की पुस्तक देवताले जी को भेंट करते वक़्त की तस्वीर


 गुलमोहर को पढ़ने से ठीक पहले की तस्वीर ......ये बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि उन्होने गुलमोहर पढ़ने के साथ साथ इस संग्रह के हर प्रतिभागी की खुले दिल से तारीफ़ भी की |
देवताले जी से विदा लेते वक़्त के भावुक से क्षण ..........नितीश मिश्र और मैं 


 अंजु(अनु)चौधरी 

Saturday, January 11, 2014

ये औरत ....






एक वक़्त था जब उसे किसी ना किसी ऐसे इंसान की जरूरत पड़ती थी ...जिसे वो अपने दिल की बात बता सके...किसी के साथ अपने दिल की बातें बाँट सके, पर उस वक़्त किसी ने उस का साथ नहीं दिया ...पर आज हर बात पलट हो रही है,अब यहाँ ...घर भर के लोग उसे आवाज़ देते हैं और वो अपनी दुनिया में कहीं बहुत दूर खो जाना चाहती है |

आज उसका दिल सब बातों  से और इस दिखावटी दुनिया से भर चुका है | एक इंसान जिसे वो दिल से पसंद करती थी और उसे बार बार आवाज़ देने पर भी अपने करीब कभी महसूस नहीं कर पाई ...आज वही इंसान उसे क्यों बार बार आवाज़ देकर अपने करीब करने की कोशिश करता है |

एक इंसान जिसे उस ने दिल से अपना बच्चा समझा और ये चाह की वो उसकी सुने और थोड़ा सा उसके मन मुताबिक खुद को ढाल दे ...पर वो कभी ऐसा नहीं कर पाया ...तो आज वो ही इंसान क्यों बार बार उसे  ''माँ'' कह कर अपने करीब करने की कोशिश करता है |
उसके अपने ही विचारो की एक दुनिया है और वहाँ बसने वाले किरदार भी उसके अपने हैं | सोचने पर वही किरदार  कभी भाई,कभी बेटा तो कभी प्रेमी बन कर उसका पीछा करते हैं |और वो अपने कानों और आंखो को बंद कर बे-हताशा भागती है ...इन सब से अपना पीछा छुड़वाने के लिए  के लिए |उसके  मन में....ईर्ष्या या घृणा के विचार प्रवेश करते ही उसके जीवन से सारी खुशी गायब हो जाती है |उसे लगता है कि उसकी कही बातों को गलतियों का रूप देकर, उसकी ही नज़रो में नीचे गिराने का षड्यंत्र रचा जाता है |जिसे वो चाह कर भी आज तक बादल नहीं सकी है |न्याय की आशा छोड़ कर उसने अपने जीवन से समझोता करना भी सीख लिया है |

रात भी खामोश है, तारे भी शांति से अपनी अपनी जगह पर ही टिके हुए हैं |पर उसके सभी पात्र अपनी अपनी पीड़ा के साथ ही उसके संग जगे हुए हैं |पता नहीं क्यों वो हर बात को सोच-सोच कर खुद को लेकर दुखी क्यों हो जाती है ? उसका मौन सनातन रहस्य की तरह उसे ही क्यों ठगता रहता है ?
ऐसा भी नहीं है कि उसके भीतर अब तक किसी ऋतु ने दस्तक नहीं दी हो |बस फर्क  इतना है कि उसके दरवाजे पर कोई भी ऋतु स्थाई रूप से अपना घर नहीं बसा पाई है....उसे ऐसा ही लगता है |शायद तभी उसे ऐसा लगता है कि सबको सम्मान देने की भावना ही उसे सबसे ज्यादा दुख पहुँचती है |

उसने कभी अपने रिश्ते या बाहर के रिश्तो में दिल से फर्क  नहीं किया फिर क्यों उसे बार बार इस बात का अहसास करवाया जाता रहा है कि ''वो औरत है''....उसे अपनी मर्यादा में रहना ही होगा |
शादी के इतने साल अपनी जाइंट फॅमिली को देने के बाद भी  ''वो'' आज तक ये नहीं समझ पा रही कि एक छोटी सी लड़ाई ने उसे पति की गाली-गलौच और काटाक्ष भरी बातों में एक माँ और एक पत्नी से सीधे ''ये औरत'' (बदचलन)कैसे  बना दिया ????

अंजु(अनु)चौधरी 

Saturday, January 4, 2014

काव्य संग्रह ...ऐ री सखी के लिए ....एक चिट्ठी दीदी चित्रा मुद्गल जी की

 




किसी भी लेखक के लिए वो पल सबसे बड़ा और यादगार होता है जब कोई उसकी कविता या संग्रह की तारीफ करे और ये पल ओर भी यादगार बन जाते हैं जब वो शक्स खुद फोन करके आप से आपका पता मांगे ....ये कहते हुए कि संग्रह को लेकर एक पत्र भेजना है |
ऐसे ही पल मेरी जिंदगी में भी आए जब सर्दी के दिनों में सुबह के वक़्त दीदी चित्रा मुद्गल जी का,मुझे फोन आया और मुझ मेरी कविताओं के लिए प्रोत्साहित करते हुए.... घर का पता लिया ताकि वो ऐ री सखी की एक छोटी सी समीक्षा मुझे मेरे पते पर अपने हाथ  से लिख कर भेज सकें |  आभार दीदी चित्रा मुद्गल जी .....



ऐ-री-सखी,पगडंडियाँ और अरुणिमा का विमोचन के पल ...........
10.02.2013 को इसके लोकार्पण के अवसर पर वरिष्ठ कथाकार श्रीमति चित्रा मुदगल, श्री विजय किशोर मानव, कवि व पूर्व संपादक "कादंबनी", श्री बलराम, कथाकार व संपादक, लोकायत, श्री विजय राय, कवि व प्रधान संपादक, लमही एवं श्री ओम निश्चल, कवि-आलोचक पधारे ...


काव्य संग्रह .......ऐ री सखी की एक कविता



री सखी……

ऐ-री-सखी सुन
पहले हम बातें किया करते थी 
अपने मन की
अपने बचपन की
अपने सपनों की
सपनों के राजकुमार की 

 ऐ री सखी
फिर वक्त बदला
हम दोनों अपनी अपनी दुनिया में
चली आई ,
नए बंधनों में बंध कर
उन संग प्रीत की डोरी बाँध
 
फिर हम बातें  करने लगी
ससुराल की 
कुछ सास की
कुछ जेठानी,कुछ देवरानी की
कुछ चाची तो कुछ मामी की
भूली बिसरी यादों की
हमारी  बातों के घेरे में 
सब आते थे
और शिकायतों का पुलंदा
हमेशा खुल जाता था |

कितना बचपना था ना
कैसी मूर्ख थी हम दोनों
जो अपनों को ही मुद्दा बना दिया करती थी |
.
सखी 
फिर वक्त बदला
तुम अकली हों गई 
इस दुनिया की भीड़ में
और मैं मन ही मन तड़प के रह गई
खुद से एक लड़ाई लड़ने के लिए  

हाँ मानती हूँ मैं कि
तेरा और मेरा ये अकेलापन
अलग अलग हैं
तू अकेली कर दी गयी 
ईश्वर की तरफ से
और मैं अकेली हूँ,शैया पर
अपनों की वजह से  
अपनी अधूरी ख्याइशों के संग 
कुछ नई तो कुछ पुरानी भी 
थम गई अब तो 
अपनी जवानी भी.... 

री सखी 
 मैं तुझे देखती रही
तडपे हुए,नम आँखों से
रात की तन्हाईयों में
तुम बहुत अकेली थी, 
मन और तन से
और मैं बेबस थी 
अपनीऔर तेरी यादों के 
के आँसूं एक साथ पीने के लिए |

सखी 
तुम ठीक कहती थी कि
वक्त बदलता हैं ....क्यों कि
अपने ही परिवार को हमने देखा है 
खुद से दूर होते हुए
भाई  भाभी को बदलते हुए
पापा के बिना 
अब भाई का घर भी 
मायका नहीं लगता हैं
माँ के रहते भी
वो ममता अब नहीं बरसती |

हर कोई अपने में मस्त सा लगता हैं
सबकी आँखों में इतने गहरे
सवाल क्यों नज़र आते हैं ?
जैसे वो  आँखों से तोलना चाहते हैं
हमारे ही वजूद को
राखी का पवित्र बंधन
अब बहुत प्रेक्टिकल सा लगता है |

ऐ री सखी
अपने पिहिर में वो 
कच्चा आँगन भी
कितने सुख की छाँव देता था 
अब देखो ना
वक्त ने हमको  सयाना कर दिया 
वक्त फिर बदला
तभी तो 
हमने रिश्तों ने नए आयाम तय किए हैं


हम अब सही मायनों में
अपनों के लिए 
जीना सीख गई हैं और
ये समझने लगी हैं तभी हम
बाहरी दुनिया से बचने लगीं हैं

बाहरी दुनिया जो ..देखती हैं
बना देती है तमाशा  
हमारी बातों का  
बनाती हैं सच्ची झूठी बातें 
घर के पवित्र रिश्तों का |

बाहरी दुनिया 
जो आज भी नारी देह को 
खिलौना मात्र समझती हैं ..
कि हर कोई अपनी बातों और 
आँखों से उसके तोलता हैं
उनके लिए उम्र की ना,कोई सीमा हैं
 मर्यादा की ना कोई परिभाषा 
अपने घर के ये शरीफ और
बाहर,हर हैवानियत से गुज़र जाने को अमादा हैं
यहाँ दिन सुलगती आग तो
राते अंगारों की सेज़ हैं |

ऐ  री सखी
चल आ ना,
लौट चले हम
अपनी ही दुनिया में
जहाँ मैं हूँ और तुम  हों
और हमारी ही बाते हों
जो हम संग संग किया करती थी
सुबह हों या शाम हों
बस हमारी अपनी ही 
बातें हुआ करती थी
एक दुनिया थी 
जिस में हम दोनों 
खुद में खो कर जिया करती थी|

चल आ ना  ...
आज हम फिर से
अपने अतीत में चलते हैं
खुद के संग पल बिताने को
और जिंदगी के कुछ 
भले-बिसरे गीत गुनगुनाने को |
   
अंजु(अनु)