उज्जैन यात्रा के दौरान हमें (मैं, विजय सपपत्ति और नितीश मिश्र ) चन्द्रकान्त
देवताले जी से मुलाक़ात करने का सौभाग्य मिला | बेहद सरल स्वभाव का व्यक्तित्व लिए हुए वो हमें लेने अपनी गली के नुक्कड़ तक
आए | बेहद आदर भाव से अपने घर के आँगन में बैठाया |शालीन स्वभाव और ठहरा
हुआ व्यक्तित्व,ऐसा पहली बार देखने को मिला | स्वभाव से हंसमुख .76
साल की उम्र में भी गजब का जोश देखते ही बनता था | एक साहित्यिक
चर्चा जिसके अंतर्गत बहुत सी बातों पर हम लोगों की बातचीत एक चाय के दौर के
साथ शुरू और चाय खत्म होने के साथ ही खत्म हो गई |उसी चर्चा का एक हिस्सा
आप सभी के साथ यहाँ सांझा कर रही हूँ .........
हम तीनों का एक जैसा ही सवाल था जो पूछा विजय सपपत्ति ने कि आज के लेखन और लेखक/लेखिका की परिभाषा क्या है ?
देवताले जी
आप खुद ही देखे वक़्त बादल रहा है और वक़्त के मुताबिक लेखन में भी बदलाव
आना बेहद जरूरी है | जिस तरह वक़्त के साथ साथ समाज बदल रहा है उसी को लेकर
लेखन में भी बदवाल आ रहे हैं |उन्मुक्तता और सेक्स को लेकर आज बहुत सी कविता और कहानी का लेखन, लेखकों द्वारा पढ़ने को मिल रहा है |कुछ साल पहले तक सेक्स के
विषय पर बात करना भी बुरा माना जाता था, वहीं आज खुले तौर पर इसे लिखा जा
रहा है |लेखक या लेखिका अब इस फर्क को अपनी लेखनी से मिटाते जा रहे हैं, बात
ओर गंभीर तब हो जाती है जब एक औरत इस विषय पर लिखती है और उसे टिप्पणी के
तौर पर गालियाँ और बहुत कुछ अनाप=शनाप सुनने और पढ़ने को मिलता है|बहुत सी लेखिकाएँ जो नयी है और ऐसा वैसा अपने खुलेपन (बोल्डनेस) की वजह से लिख तो देती है पर बाद में खुद ही सबसे बचती फिरती हैं .....ऐसे भाई ...ऐसा लिखना ही क्यों कि सबसे नज़ारे बचानी पड़े (ओर एक ज़ोर सा ठहाका लगा कर वो हँस पड़ते है )
देवताले जी ने अपनी बात को ज़ारी रखते हुए कहा कि ....
कैसी विडम्बना है कि हिन्दी साहित्य अलग अलग खेमों में बंटा हुआ है |
भारतीय साहित्यकार, प्रवासी साहित्यकार या स्थानीय साहियत्कार | पर ये बात
समझ में नहीं आती कि लेखन को अलग अलग क्षेत्र में कैसे बाँटा जा सकता है |
जितना सबको सुना और समझा ....बस ये ही बात समझ आई कि भावनाएँ सब की एक
जैसी है पर अनुभव अलग अलग जिस के आधार पर हर कोई लिखता आ रहा है और उसी पर
आज तक लेखन टीका हुआ है|
बहुत बार मैंने एक बात को बहुत ही गहराई से महसूस किया है और वो ही बात, मुझे उस वक़्त बहुत दुखी कर जाती है कि जब कोई लेखक या लेखिका, किसी को जाने बिना उस पर किसी भी बात को लेकर दोष मढ़ने लगते हैं | कोई अच्छा लिख रहा है तो इस बात से परेशानी, कोई शांत रह कर काम करता है तो परेशानी,किसी को भी सम्मान मिले तो बेकार का होहल्ला |ये कैसा लेखक वर्ग है जो पढ़ा लिखा होने के बाद भी किसी की भावनाएँ नहीं
समझता |
कविता कहानी लिखने वाले दिल से इतने कठोर कब से और कैसे हो जाते हैं कि किसी
की भी उसकी पीठ के पीछे बुराई करने से भी गुरेज नहीं करते ''फलां ने
ऐसा कर दिया .....देखो तो फलां ने कैसा लिखा है ..उफ़्फ़ रे बाबा ....पता
नहीं कैसे हँस कर सबको पटा लेती है या यार! वो ''सर'' को कितना मस्का
मारता है या कितना मस्का मारती होगी ''.....आदि आदि | ऐसी ही कितनी बाते हैं जो आते जाते सुनने को मिल
जाती हैं |
पर मेरा बस इतना ही कहना है कि ''अरे रे बाबा! किसी की भी परिस्थिति जो जाने बिना, उस पर किसी भी तरह की कोई भी टिप्पणी मत करें |
टिप्पणी करने वाले/वाली की बुद्धि पर तब ओर भी हंसी
आती है जब वो पूरी तरह से सच से आवगत हुए बिना सबके आगे किसी दूसरे के
सच को सांझा करने की कोशिश करते हैं |अरे भाई! सच का तो जाने दीजिये....सबके लिए
उसके विचार कैसे हैं, ये तक उसे नहीं पता होते और वो दावा करते हैं पूरे
सच को उजागर करने का |बुराई करने वाले ये नहीं जानते कि कब किसी की कोई भी
कृति कालबोध बन जाए....इस बात को कोई नहीं जानता |
मुझे आज.
भवानी प्रसाद मिश्र जी की ये पंक्तियाँ बरबस यूं ही याद आ गयी
अनुराग चाहिए
कुछ और ज्यादा
जड़-चेतन की तरफ /लाओं कहीं से थोड़ी और |
निर्भयता अपने प्राणों में |
बस ये ही सोचता हूँ कि काश बेकार की बातें करने वालों ने कभी अपनी सोच
का रचनात्मक उपयोग करने की सोची होती तो वो लोग आज अपने लेखन को शिखर पर
पाते |
इस पर मैंने उनसे पूछा ....''दादा'' आप अभी तक कहाँ कहाँ गए हैं और किन किन साहयित्कारों से मिलें हैं ?
तो उनक जवाब ये था कि ......
मैं अपनी नौकरी के दौरान लगभग पूरा हिंदुस्तान घूम चुका हूँ और अभी तक
जहाँ-जहाँ जाना हुआ....वहाँ के जन समूह और उसको लीड करने वाले अलग अलग
साहित्यकारों से मेरी मुलाक़ात हुई है | हर क्षेत्र के लोग, उनकी
सोच, वहाँ के रहन सहन के मुताबिक ही मिली | मैंने इस बात को बहुत ही गहराई
से समझा है कि किसी की बात का किसी से तालमेल ही नहीं होती | एक बुद्धिजीवी वर्ग
है, जिसकी अपनी ही दुनिया है, अपने ही लोग है और एक सीमित दायरा
है,जो फालतू बोलने में विश्वास नहीं करता पर करता अपने मन की
है |फिर भी वो अपना काम करते हुए बहुत अच्छा लिख रहे हैं, उन सबका साहित्य में अपना एक मुकाम है |
ऐसा मेरा अपना खुद का निजी अनुभव है
जैसे
अलग अलग धर्मगुरु हैं और उनके अलग अलग भक्त ....वैसे ही साहित्य में भी हर
साहित्यकार की अपनी ही सोच और अपनी ही विचारधारा है, जो उनके लेखन को एक
अलग ही पहचान प्रदान करती है |
और नितीश मिश्र का एक आखिरी सवाल था ....दादा क्या कविता कहानी लिखने का
कोई उचित समय हैं ? कई लोगों से सुना है कि वो सुबह के वक़्त तरोताज़ा होते
हैं इस लिए वो सुबह के वक़्त ही लिखते हैं ?
इस पर एक बार फिर वो ठहाका लगा कर हँसते हुए हम तीनों से कहते है कि
क्या कविता लिखना या कहानी लिखना किसी स्कूल के चेप्टर जैसा है कि उसे याद
किया और रटा मार कर सुबह के वक़्त लिख दिया | अरे भाई लेखन को वक़्त में
मत बांधो, वो तो खुली हवा है उसका अहसास करो और अपने शब्दों में
उतारों | अपने शब्दों को जीना सीखो, तुम शब्दों में जीओ और शब्द
तुम्हें जीवन में शालीनता से कैसे लिखा और जिया जाता है वो अपने आप सीखा देंगे सीखा देंगे |''
हम सबकी चाय के साथ साथ बातचीत भी यही समाप्त हो गयी और चलते चलते देवताले जी ने अपनी इस पुस्तक को भेंट करके हम सबका बहुत खूबसूरती से सम्मान किया |इनके लिए आभार जैसे शब्द भी बहुत छोटे पड़ जाते है |
अपनी कविताओं की पुस्तक देवताले जी को भेंट करते वक़्त की तस्वीर
गुलमोहर को पढ़ने से ठीक पहले की तस्वीर ......ये बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि उन्होने गुलमोहर पढ़ने के साथ साथ इस संग्रह के हर प्रतिभागी की खुले दिल से तारीफ़ भी की |
देवताले जी से विदा लेते वक़्त के भावुक से क्षण ..........नितीश मिश्र और मैं
अंजु(अनु)चौधरी