Tuesday, November 29, 2011

दोस्ती......


दोस्ती......

किताबे पढ़ी ,
मन का मंथन किया
खूब सोचा-समझा

और जांचा
ऐ-दोस्त तुझे ....
राहे-जिन्दगी में
ख़ुशी मिले ना मिले
सुकून जरुर मिले|

मैंने जन्नत तो नहीं देखी....पर,
चलते-फिरते हुए
तेरी
आँखों में सादगी देखीं
राह चलते भी
रिश्ते
बन जाया करते हैं
वहीँ रिश्ते मंजिल
तक जाते हैं ..
ऐ-दोस्त पर मैंने ..

तेरी दोस्ती की इन्तहां देखी |


आदमी ही आदमी का
दुश्मन हैं यहाँ
मत पुछिए...कि
इस दिल की
आरजू हैं ये कि ..
हाथ उठा कर ,
अल्लाह से सिर्फ प्यार
नहीं माँगा करते
दोस्ती के लिए भी मैंने ,
फ़रियाद मंज़ूर होते देखी |


आँखों से तूफ़ान उठाया
जा सकता हैं
चुप रह कर उसे
फिर से दिल में
छिपाया जा सकता हैं
फिर भी दोस्ती की मशाल
हर मौसम में जलती देखी |


अब बस एक ही
आरजू है मेरी कि ...
मेरी हर दुआ
तुझे छू कर गुज़रे
ये ही तम्मना हर बार
दिल में मचलती देखी ||

अनु....

Sunday, November 20, 2011


क्यों मौन है ये ताश के पत्ते सी घर की चारदीवारी

आँख खुली तो अन्याय को
तांडव करते हुए पाया
अवतरण के वक़्त मुसीबतों ने ही
अमंगल गीत था गाया
अन्याय का दर्द भोग रही
हर श्वांस
पल पल कसता
मुसीबतों का घेरा सा |

हर किसी की एक नई जिन्दगी जो
जो शुरू होती है ....ब्याहा से ,
हर किसी को रास नहीं आती है ..
वे शादियाँ जिन में
खटास चुकी है
वे झगड़ते हुए दम्पति
क्यों नहीं ....खुद को एक बार
मौका देते ...
क्यूँ लम्हा -लम्हा सुलग रहे
खुद के ही भीतर वो
क्यों नहीं अपनी कहानियों
का अंत कर देते
क्यों नहीं उनकी तनी
हुई भवें ...झुक जाती |

स्वमं को मानव कहने वाले
क्यूँ झगड़ते है जानवर सामान
एक जंगली मानसिकता
जिसके है वो दोनों ही
शिकार
कोई कानून नहीं,
ना ही कोई व्यवस्था
जिसका करना है पालन उनको
उनके घर छाया
सर्वत्र जंगलराज

मेरा सिर्फ उनसे इतना है कहना
हर वो वैवाहिक ...
जो झगड़ते है
कृपया ..कृपया
अपनी अपनी असहमति
से सहमत हो जाये
अपने वाणों के
चाकू ,अपने काँटें...
अपनी नकली हँसीं..
लेकर ...नकली आंसूं
ना बहाएँ
क्यों कि प्रेम के
मुहाने पर
अभी
तक आंसुओ के लिए जगह है
लेकिन रिश्तो के अस्त होने पर
आप लोग ....खुद को
घायल करने या काट खाने के लिए
अपने कटु बाणों के
तीर लिए
बिस्तर पर ना जाए |

क्यूँ कि-शब्दों के प्रहार से
घायल है उनके अपनों
की ही जिंदगियां
वो लोग देखे और बतलाये कि
क्यों ..मौन है ये ताश के पत्ते
सी घर की चारदीवारी
क्यों अधूरी है उनकी जिन्दगियाँ
अपनों के बिना ?

अनु

Friday, November 11, 2011

एक अबोध बचपन


एक अबोध बचपन

एक धीमा बचपन
जो खुद में ढूंढता है
एक मासूम बच्चा
जिसका कोई उत्तर नहीं ...
मन का वो बच्चा जो
भागता है ,
नदी के बहाव के साथ साथ
कहीं दूर तक
बिन सोचे कि
ये कौन दिशा जाएगी
और वो दौड़ता
चला गया
साइकिल के पीछे
अपने कदमो की
गति के साथ
बिन अपने कदमो की
मिथ्या को पहचाने .....

बच्चे का मुखौटा बदला
उसने अपने 'स्व ' से
खिसकना बंद किया
ढांचा स्थिर हुआ
अचानक उसके चेहरे से
एक अजनबी चेहरा
प्रगट हुआ ...
जो क्रूर था ..अपनों
और गैरों के लिए
कुछ कठोर ,कुछ निर्दयी
कुछ अनजान ,कुछ परेशान सा
अपने ही वक़्त से
उसके मन का सरोवर
उसका ही कठोर ,
छिपा हुआ जलपुंज उसका
अपने ही
दर्प से जल रहा था
...

बच्चे का मुखौटा
फिर से बदला
वो अपने 'स्व 'के साथ
फिर से स्थिर हुआ
नयनो में अब मौन
की भाषा थी ....
आहट ,जर्जर ह्रदय था
उसने जीवन में ..
तब उसने
संतोष पाने का संकल्प किया
जब अपनों ने भी साथ छोड़ दिया
किसने उसे सुना ?
किस आवाज़ ने उसका उत्तर दिया ?
वो चीखा ...और किसी को
इसका पता नहीं चला ..
अकेलपन का भयानक चक्र
जब ऊपर उठा
तब....उसकी वापिसी हुई
एक अबोध बचपन
जो खुद में ढूंढता है
एक मासूम बच्चा
हमेशा ही अपने भीतर
एक अबोध बचपन .......


अनु ...

अनु

Sunday, November 6, 2011

एक प्यास मेरी भी


एक प्यास मेरी भी

रोज़ सुलगती इन आगों में ,एक आग मेरी भी है
रोज़ दहकती इन रातों में ,एक रात मेरी भी है||

रोज़ पीड़ित मन की आहों में ,एक आह मेरी भी है
रोज़ सागर के चक्रवातो में ,एक मंथन मेरा भी है ||

रोज़ महकती इन सांसों में ,एक सांस मेरी भी है
रोज़ मचलती इन रातों में ,एक रात मेरी भी है||

रोज़ थिरकती इन गुंजों में ,एक गूंज मेरी भी है
रोज़ चहकती इन बातों में ,एक बात मेरी भी है||

रोज़ छलकती इन बूंदों में ,एक बूंद मेरी भी है
रोज़ तड़पती इन प्यासों में ,एक प्यास मेरी भी है ||
अनु