क्षितिजा
तुम कहते हो
निकलता हुआ चाँद
मुझे ही ताकता है
पर हर सांझ वो
मुझे बहुत रुलाता है
जब तुम से बिछड़ कर
जाने का वक़्त करीब
आता है ..
तुम से बिछड़ने से पहले
मैं खुद में विस्तार पाती हूँ
कनपटियों पर बजती हैं
खड़-खड़ उसाँस तुम्हारी
और
तुम्हारी ही हँसी के
चाँदी जैसे कण
बिखरने लगते है
मेरे चारो ओर
यह खंड-खंड टूटता हुआ सूरज
और फटता हुआ मेरा मासूम ह्रदय
किसी तरह भी
रोक नहीं पाता
क्यों..
बंधी मुट्ठियों से फिसलती है
हर दिन की आखिरी किरण
दे जाने को एक नई
सांझ जीवन की
उठती हुई ...क्षितिजा को ||
अनु