Monday, March 25, 2013

इस होली में

(जीवन की सोच के हर रंग का मिला जुला सा असर )

इस होली में
रंगों की टोली
रोशनी का उमड़ता हुआ सैलाब बनी
फिर भी
रुकावट के लिए खेद है
क्यों कि
देश को बचाने की
मुहीम भी तेज़ है |

होली के रंगों की तरह
राजनीति भी रंगी है
सच्चे-झूठे वादों के घेरे में
कहीं ...
श्वान कूटनीति
कहीं धमकी का धमाका
कहीं कोई ढूँढ रहा है
एक नया बहाना....
काले शीशे वाली कारों पर
बेअसर हो रहा है
हर रंग मतवाला |

कहीं मुलायम की सरकार
तो कहीं चली मोदी के
भाषण की तलवार
सात रंगों के संग
सब खेल रहें होली
पर देश के नेता और राजनीति की
उतनी ही बदरंग हो-ली
मासूम बेटियों पर अत्याचार से
ना कोई रंग बचा,ना ही कोई उत्साह
इस होली में...
बडी कमी महसूस हुई
प्रतिमान,समय और
समाज-संस्कृति की...
पास-पड़ोस के दिल अब
सूने हुए...
औरतो के सरेआम बेईज्ज़त होने में
इसी वजह से ना है हुड़दंग ,

ना है कोई हो-हल्ला  
ना जीवन में कोई रंग बचा  
इस होली में ||

फिर भी इस होली में
मन की एक खिडकी
खुली सी है
बगिया में तितली
उड़ी सी है
चहुँ ओर बिसरी स्मृतियाँ
 
 स्नहे से लिपटी सी हैं
लेखन की टेबल पर रह कर
मन की भड़ास,
शब्दों में उभरी सी है ||



फिर भी..

रोशनी का एक उमडता
संसार बना तो

जाने किस सोच में
झुक जाती है सबकी नज़रे
कुछ कहो,कुछ सुनाओ
कोई किस्सा तो छेड़ जायो

है मस्ती का आलम
तभी तो
रंगों में रंग कर बिखरा सा है
उड़ता है
अबीर का सहर*(जादू)
घेर रहा सबको
हर ओर से
सात  रंगों के मेल से
जो बुन रहा है,
एहसासों के आईने में
एक सुंदर सपना सा
इस होली में ......||


(आप सबको बच्चों जैसी मस्ती वाली होली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ )

अंजु(अनु)

Thursday, March 7, 2013

दीवार के उस ओर की लड़की



मन विद्रोही
तन छलनी
स्वर क्रांति के फूटे
दुनिया की 

चालबाजी देख
आँखों से नीर फूटे ||

रहस्य जीवन का जान कर भी
कोई ना जाने
घृणा,प्रेम
जीवन के साथ शत्रुता ,
मित्रता नहीं
ये भेद हैं अब पुराने
गायब होती परम्पराएँ,मान्यतायें
क्यों हर पल
अपने ही अस्तित्व का दामन छूटे
क्यों,कोई विश्वास की
डोर थमा,
अविश्वास का खंजर घोंपे ?


अब लड़ाई हैं उनसे
जो हैं,
शिष्टाचार और बुद्धिजीवीवर्ग के
शिखर पर प्रतिष्ठित
हर पल उनके लिए
क्रांति का स्वर ही क्यों फूटे ?

कोई अच्छा-कोई बुरा
कोई पापी-कोई भला
कौन है दिव्य,कौन है पापी
इसी भेद के चक्कर में
क्यों है हर कोई विभाजित ?
 

एक सोच,एक सपना
ये मन विचिलित विचारों का रेला
फिर क्यों वो लोग
अपने ही वृताकार में घूमे ?
 

तंग सोच,
घूमा-फिरा कर बात करना
नहीं है व्यवहार सामान्य इनका
एक कुदाली,एक ही वार
और नष्ट होता किसी ना किसी का
आत्मविश्वास |

झूठी बातें,झूठे हैं प्रमाण इनके
पागलपन की हद तक
कामवेश का झूठा
तर्कजाल है इनका
यहाँ सही और गलत
दोनों ही समाहित हैं
बिना प्रमाण के |

इनसे दुखी हर मन ये सोंचे,
''करूँ शिकायत कहाँ मैं अपने दर्द की?''
कोई तो सीमा हो
किसी के छल की..कि

हर राह,धुँआ-धुँआ है
हर मजिल पथराई सी
किस ओर बढ़े ये कदम,
हर रस्ते में तो,
व्यवधान खड़ा है
तभी तो ......
मन विद्रोही,
तन छलनी,
स्वर क्रांति का फूटे 

दुनिया की चालबाजी देख
आँखों से नीर फूटे ||


anju(anu)