Sunday, December 30, 2012

ये साल कुछ इस तरह से बीत गया

भाई विजेंद्र शर्मा की ये वो पंक्तियाँ है जिसकी वजह से मेरी आज की ये कविता बनी .....

शर्मसार तो कर गया ,जाते जाते साल
आने वाले साल में ,कैसा होगा हाल ||
(इस उम्मीद के साथ की आने वाले साल में ऐसा दिसम्बर ना आए )
विजेंद्र शर्मा 



                          

सरकार की पनाह में और
कानून की छतरी तले
दाल महंगी हो गई और
सपने अधूरे रहे गए
कुछ लोग रोटी को मोहताज
रहने को मजबूर हो गए
हुकूमत के ही सब रंग ही बस
क्यों,गाढ़े और गाढ़े हो जाते हैं 
बाकि क्यों सब कुछ धूमिल सा रह जाता है ?



सरकार की पनाह  में और
कानून की छतरी तले
अस्मत के लुटेरे हर गुनाह के बाद
बन कर चूहे, छिप जाते हैं 
अपने अपने बिलों में
हर ज़ुर्म के बाद ,
सरकारी पनाह में वो
हमारी दी गई ज़मी पे ही ''हीरो''
क्यों हो जाते हैं ?

सरकार की पनाह में और
कानून की छतरी तले
क्यों अब कोई कानून लागू नहीं
क्यों अराजकता का राज है ?
हर नेता अपने ही दल के साथ
चलाता अब सरकार है
फिर भी मेरा देश भारत
''महान है ''
जहाँ सुरक्षित नहीं है किसी घर की बेटी
वहाँ आज भी ''भारत माता की जय ''
के लगते नारे हैं
फिर भी हम चुमते अपनी माट्टी को है
भरते है अपनी सांसों में इसकी
खुशबू को
तो फिर भी कैसे तानाशाही के
रंग गाढ़े हो गए ?


सरकार की पनाह में और
कानून की छतरी तले
जाने को है ये साल
और आने को है अब नया साल
क्या नए साल में भी इतिहास खुद को
दोहराएगा ?
या
कोई नया सवेरा
झरने सा गीत गाता आएगा ?
होगी एक नयी शुरुआत
या फिर से ये ही कुर्सी दौड़ के प्रत्याशी 
अपनी ही आपाधापी में
यूँ ही दोहराव कर
सबके जीवन को जलाएंगे ?


सरकार की पनाह में और
कानून की छतरी तले
अब हर दिल अजीज़ बस एक ही
सवाल पूछे
कब एक नयी सुबह
हर घर आँगन को चूमेगी ?
कब अल्हड़ जवानी
निर्भय होकर विचरण करने निकलेगी ?
कब दर्द और नासूर का रिश्ता
कोहरे की चादर से बाहर आएगा ?
कब हर घर के रिश्ते
फिर से उसी रंग में
लौट आएँगे, जो खो गए है
देखा देखी के दौर में ?
कब सत्ता की सरकार
गठबंधन से मुक्ति पाएगी और
एक नयी सुबह फिर से
हम सब के बीच लौट आएगी ||

अंजु (अनु)


                           
                                 नए साल (२०१३ )में बहुत कुछ बदलाव के साथ अच्छा होगा इस उम्मीद के साथ,हम  सब नए साल का स्वागत करते हैं |





Wednesday, December 26, 2012

मैं एक नारी हूँ

                                             Artist....Ameeta Verma
 

हे!सखा कृष्ण
मैं एक नारी हूँ ,
आत्मा हूँ हर युग की
मैं एक चुनौती-एक आवाहन हूँ
झंझोरती हूँ तुम्हें कि
जैसे मैं मिटती आई हूँ 
किसी  भी युग की स्थापना हेतु
क्या वैसे ही कोई पुरुष मिटा पाएगा खुद को ?
हे! सखा कृष्ण
मेरे लिए,मेरा रक्त बहाना
कोई नयी बात नहीं है
पर हर युग में
पुरुष ने मुझे श्रेष्ठ संगनी की जगह
श्रेष्ठ भोगिनी बना दिया
काश, किसी ने तो समझी होती
नारी मन की पीड़ा को |

हे!सखा कृष्ण
नारी की सबसे बडी बदकिस्मती कि
क्यों तुमने ही मुझे पंच-पुरुष की(द्रोपदी के मन की बात )
नायिका बना,
द्वंद और लज्जा में है डाला
ग्लानि,संकोच और विरह की ओर
बढते हुए, तब भी मेरे  पाँव 
पत्थर हो जाते थे  
हे! कृष्ण
उनके पौरुष की गरिमा बनाए रखने के लिए
तुमने मेरी अस्मिता को ही
दाव पे लगा दिया
मैं तब भी क्रोध से जर्ज़र हो गई थी 
घोर अपमान लगा था मुझे
एक औरत के मन का, देह का
कि, एक से अधिक पति ?
तुम ये कैसे भूल गए कि
मैं एक स्त्री हूँ
अग्नि को साक्षी रख
क्या सबको पति बना, सिर्फ एक के साथ
स्त्री  का कर्तव्य पालन कर पाऊँगी ?
एक स्त्री होने के नाते मैं
सदियों-सदियों तक
तुम्हारी गलती और अपने क्षोभ
को लेकर अंदर ही अंदर
अपनी ही आग में जलती रही
वो भी बस इसलिए कि
मैं एक नारी हूँ 
हे!सखा कृष्ण 
पर अब कब तक ?
अंजु (अनु)


( ये कविता मात्र एक सोच है, किसी को आहत करने के विचार से नहीं लिखी गई | मानती हूँ हर किसी के विचार अपने हैं अगर किसी को मेरी कविता के भाव,शब्द ठीक ना लगे हों तो क्षमा मांगती हूँ )

Saturday, December 22, 2012

फरमान



कुछ सपनों को तोड़ती-मोड़ती हूँ
कुछ अपने-आप से ही बाते करती हूँ
जिंदगी को बना के महबूब अपना
महबूबा बन,रोज़ उस से
मुलाकात करती हूँ |

सूरज का आना और फिर छिप जाना
अपने मन की नैतिकता से
रोज़ इस खेल का दीदार
करती हूँ
विश्वास के आदर के साथ
बनाई हर तस्वीर का
भीतर की टूटन के साथ
कुछ नए होने का
हर बार इंतज़ार करती हूँ
जिंदगी के रंगों 
और आर्ट ऑफ लिविंग की
सोच से
खुद को ढाल लेने का
बार-बार प्रयास करती हूँ |


कुदरत के ब्रुश से अपने ही
सपनों में रंग भरती हूँ
देखती हूँ उन छोटी छोटी
चिड़ियों को, जो
अपनी इच्छा से चहकती
फुदकती हैं
और उनमें मैं अपना अक्स
देखने की कोशिश करती हूँ
पर हर बार की तरह
मेरे पंख क़तर दिए जाते हैं  |


अपने ही मसीहाओं पर आश्रित हो
ताकती हूँ खुद की सीमाओं के अंदर
अपने ही जीवन के प्रति,मुझे में ही
सच्ची श्रद्धा नहीं है
तभी तो ज़ज्बात ज़ब्त हो जाते है
और मेरा तटस्थ होना भी तो किसी को
गवारा नहीं 
खुद से कोई निर्णय लूँ
उस से पहले ही हिटलरी फरमान की
चिट्ठियाँ थमा दी जाती हैं |

ना कुछ कहने को छोड़ा जाता है 
ना कुछ करने को
फरियादी होने पे भी
खटखटाते दरवाज़े नहीं खुलते
माँगने पे इन्साफ नहीं
मिलता
हाँ !ये ही हाल लगभग सभी का है
आज़ाद होने पर भी
बेड़ियों के ताले जड़ दिए जाते हैं
हर रोज़ एक घटना घटती है 
साधारण सी ही घटती है, पर
अपने आप में गहरे अर्थ,
ढेर सारा विमर्श और
ढेर सारी करुपता लिए हुए
और अंत में, मेरे हिस्से आती है
सिर्फ एक सोच, कि
क्या अब इस जीवन में
कोई संभावना है,मेरे लिए ?
करुणा,करुणा और करुणा
क्या अब इसके अतिरिक्त भी
मेरा कोई जीवन होगा ?

अंजु(अनु)

Sunday, December 16, 2012

मेरी सोच की डायरी के पन्ने


 सालों पहले डायरी लिखने का दिल किया तो,एक डायरी हाथ में आते ही मैंने लिखनी शुरू कर दी| डायरी में लिखी अपने दिन-प्रतिदिन की सोच को आप सबके साथ साँझा करने का मन किया तो आज उसी का ये पहला पन्ना आप सबके सामने लेकर आई हूँ |





पहला  पन्ना!

मैं रोए जाती हूँ, ये सोंचे बिना कि मैं क्यों रों रही हूँ, अपने लिए या अपने उन रिश्तो  के लिए जो मैंने बडी मेहनत से बनाए थे |बहुत बार सोचती हूँ कि  मैं ऐसी क्यों हूँ ? दिल से क्यों सोचती हूँ ? औरों जैसी क्यों नहीं हूँ, बात हुई बात खत्म, हर बात को दिल पर लेने की आदत क्यों पड़ गई है ? सोचती हूँ आज से मैं खुद से और अपने अंदर के भावुक ख्याल को अलग रख, बिना भावनाओं के जीने की कोशिश करुँगी,पर मुझे नहीं लगता कि मैं इस में कामयाब हो पाऊँगी  | जिंदगी मेरी,ख्याब मेरे, भले ही अधूरे हैं जो कभी अपने नहीं हुए फिर भी मेरे हैं और ये जिंदगी मेरे लिए एक ठग से बढ़ कर कुछ नहीं है  | मेरी सोच मुझ से शुरू होकर मुझ तक ही खत्म हो रही थी ठीक वैसे ही जैसे एक बूढी औरत के पास एक मुर्गा था और वो ये सोचती थी कि उसका जब मुर्गा बांग देगा तभी सुबह होगी,इसी वजह से वो पूरे गाँव भर में अकड़ कर चलती थी कि उसके मुर्गे की बांग के बिना सुबह ही नहीं होगी जबकि वो इस बात को नहीं समझ रही थी कि 'सुबह होती है तभी मुर्गा बांग देता है' ये ही सोच सोच का फर्क है, जिस बात को मैं सही मानती हूँ वही बात मेरे सामने वाले के लिए गलत भी हो सकती है ये सोंचे बिना मैंने कैसे अपनी सोच को उस पर थोप सकती हूँ |मैं कुछ समय के लिए ये भूल गई थी कि मेरे बिना भी जिंदगी चलेगी,भले ही कुछ देर थमने के बाद हर काम वैसे ही होगा जैसे मेरे होते हुए हुआ करता है  | ठीक वैसे ही,जब एक रेलगाड़ी पटरी से उतर जाती है तो उसके पीछे आती हुई रेलगाडियों को समय पर चलने के लिए कुछ वक्त लगता है, और वो कुछ वक्त के बाद उसी पटरी से अपने  निश्चित स्थान पर पहुँचनी शुरू हो जाती हैं, ऐसा ही कुछ हाले-बयाँ  हर किसी की जिंदगी का भी है |आज पहली बार मैंने, मेरे मन के भीतर झाँका और देखी अपनी धारणाएँ,अपने पक्षपात,अपने विचार और अपने ही सिद्धांत जिन पर चल कर मैंने अब तक का सफर तय किया है, फिर ऐसा क्यों लग रहा है कि अब भी सफर अधूरा है, कुछ है जीवन में जिस की कमी अब भी खटकती है इस दिल को |मैं बैठी हूँ, लोग आते हैं  बाते करते हैं और चले जाते हैं और मैं यूँ ही बैठी रह जाती हूँ क्यों मेरे भीतर  अब भी चिंताएँ,फिक्रें और बेचैनियाँ हैं उन सब के लिए जिन्हें मैं अपना मानती हूँ और वो मेरे लिए, मेरे बारे में क्या सोचते हैं इसकी चिंता किए बिना एक मुस्कान के साथ इस जिंदगी का एक नया दिन जीने के लिए खुद को ऊर्जित करती हूँ ,एक नई लड़ाई, कुछ खट्टी-मीठी बातें और ढेरों नई सोच के साथ मेरा नया दिन शुरू होता है और शुरू होता है एक नए चेहरे की नई सोच, एक भ्रांति, उस मन दर्पण के साथ जिसके सामने मैं खड़ी हूँ अपना चेहरा लिए,कुछ नए अनुभवों के लिए |

अंजु (अनु)

Thursday, December 13, 2012

आईना

ये कैसी कशमकश है कल दिन भर उस से बात नहीं हुई और मैं बार बार उसे ही सोचती रही कि अभी फ्री होगा अब मुझे उसका फोन आएगा, मेरे मोबिल पर अभी उसका कोई sms आएगा, पर पूरा दिन निकल गया | आज एक नया दिन है पर अभी तक कोई सम्पर्क नहीं, उसका कोई अता पता नहीं मन की हलचल है जो थमने का नाम नहीं ले रही उसके लिए क्या सोचूं और क्या नहीं, मन की सोच बस गलत ओर ही जा रही है कि उसे कुछ हुआ ना हो, ये ही सोच एक ही जगह स्थिर हो चुकी है खुद से बाते करने की ये स्थिति मुझे मेरे से ही  हर बार ये ही प्रश्न करने के लिए खड़ा कर देती है कि क्यों किसी का भी इंतज़ार इतना तकलीफ़देह होता है और कुछ ही देर में मैं खुद को आईने के सामने देखती हूँ और खुद को देखते हुए बस ये ही सोचती हूँ कि मैं सुन्दर क्यों नहीं हूँ,काश मैं भी सुन्दर होती तो वो एक नज़र भर मुझे देखता, उसकी आँखे भी मुझ से कुछ कहती और मैं शरमा कर अपनी आँखे नीची कर लेती और पैर के अंगूठे से ज़मीन पर यूँ ही कुछ खरोंचने का दिखावा करती, पर मैं कभी उस से अपने दिल की बात कह ही नहीं पाई और आज बरसों बाद उसका यूँ मेरी जिंदगी में आना, एक नयी कशमकश को जन्म दे गया है |  ये बात मुझे अब बार बार कचोटती रही है कि आखिर ऐसा अब इस वक्त क्यों,वक्त की चादर में ऐसा क्या छिपा है जो मुझे नहीं दिख रहा ?खुद को फिर से आईने में देखती हूँ तो दो आँसू गिरते हैं  और फिर जिन्दगी की आवाज़ आती है और मैं आँसू  पोंछती हुई अपने वर्तमान में लौट आती हूँ एक नया दिन जीने के लिए सबके साथ, सबके लिए | कोई बुरा सा ख्याब देखते हुए में आज जागती हूँ और खो जाती हूँ अपनी इस दुनिया में, सबके लिए |
वक्त बीतने लगा, मैं फिर से एक अनचाही नींद से जागती हूँ और सोचती हूँ खुद और तुम्हें कि  हम लोगों की दोस्ती ने (हो सकता है ये प्यार भी हो ) नए आयाम तय कि थे हम दूर होते हुए भी करीब रहें पर अब जबकि मैं ये जान गई हूँ कि अब तुम नहीं हो ये जानते हुए भी तुम्हें सोच कर लिख रही हूँ अब तुम कभी नहीं आओगे ना ही हम दोनों के बीच कोई बात होगी और दोनों के एक होने का कोई भी अहसास आज से आएगा | ये वक़्त ऐसा है कि हम दोनों ही इस वक़्त खूब बातें हुआ करती थी  कि कुछ पल पूरे दिन के बाद हम दोनों साथ रहते थे, साथ बैठे, साथ बातें की पर आज से वो भी नहीं होगा, ना मैं तुम्हारे करीब आ पाऊँगी और ना तुम्हारी गोद में सर रख के सुकून के वो पल मुझे नसीब होंगे और अब मुझे तुम्हारे ही बिना रहने की आदत डालनी होगी, कुछ दिन के लिए मन बहुत तड़पेगा, बहुत याद आएगी तुम्हारी, पर इसके बाद मुझे तुम्हारे ख्याल के बिना रहने की भी आदत हो जाएगी |तुम जानते हो ना मैं तुम्हारी गोद में सर रख कर अपने दिन भर की बातों को तुम्हें बताती हूँ और तुम अपनी उँगलियों से मेरे बालो में हाथ फेरते हो तो ऐसा महसूस होता था कि हम दोनों ही इस जाहन से नहीं हैं हम दोनों दूर किसी देश से भटक कर इस दुनिय में आ गए है और मुझे हर वक्त ये अहसास होता था कि आस पास के लोग विचित्र नज़रों से हमको देखते भी हैं,फिर भी हम दोनों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता हम अपनी ही दुनिया में मस्त रहते थे तुम मुझे निराहते हुए खुद के करीब करते थे और मैं तुम्हारे ही निहारने में खुद को ले कर खो जाती थी ये कैसा अहसास था, क्या तुम जानते थे  ?
ताकती हूँ उस खाली से आसमां को, जहाँ आज तारों की चमक भी फीकी सी लगती है और पूछती हूँ उस खुदा से अपनी सूनी आँखों से कि क्यों छीन लिया मेरा हर अहसास उसके साथ ही,जिसने मुझे इस जहान में सबसे सुन्दर बना दिया था कुछ ही दिनों में, पर तुमने उसे वक्त से पहले अपने पास बुला लिया है अब मैं इस अहसास का क्या करुँगी, जो मुझे अब नहीं मिलेगा उसे  और मुझे अब ऐसे ही अलग अलग जीना होगा, मुझे मेरी और उसे तुम्हारी दुनिया मुबारक हो कि अब के बाद से उसका कोई भी ख्याल मुझे आ कर परेशां नहीं करेगा, पर ऐसा कैसे होगा ये मैं भी नहीं जानती |ऐसा क्यों है ? इस बात का जवाब तो मेरी सूजी आँखों और मेरे आईने के पास भी नहीं है |
 
अंजु (अनु)

Wednesday, December 5, 2012

तलाश ...इस मन की

 आज दिन में आमिर खान ,रानी मुखर्जी और करींना  कपूर खान अभिनीत तलाश फिल्म  देखी ,फिल्म  अच्छी थी ,धीमी गति से चलती हुई सी इसने बोर नहीं होने दिया .पर सोचने को बहुत कुछ दिया ,ये हिंदी सिनेमा वाले ,अपने दर्शको की नब्ज़ को बहुत अच्छे से जानते है ,यहाँ कुछ नया करने की होड़ हर वक्त लगी रहती है | आज कल टीवी और सिमेमा दोनों ही तरफ़ मृत्यु के बाद के जीवन को दिखा कर दर्शकों में उत्सुकता पैदा करना चाह रहे है ,इस फिल्म में भी आमीर खान के बेटे की मृत्यु के बाद भी उसके वजूद को आत्मा से बात करने वाली एक औरत के माध्यम से दिखाया गया है जो कि रानी मुखर्जी ( उस मरे हुए बेटे की माँ और आमीर की पत्नी के रूप में )बात करते दिखाया गया है और वही साथ के साथ करीना कपूर खान को भी एक आत्मा के रूप में दिखाया गया है जो कि इस फिल्म के अंत में पता चलता है बस ये ही सस्पंस है इस फिल्म का ........पर असली  मुद्दा ये है कि ...क्या सच में मृत्यु के बाद आत्मा होती है ? क्या कोई ऐसा जीवन है जो मृत्यु के बाद शुरू होता है एक अनंत यात्रा के रूप में ? क्या हम मरे हुए लोगों से संपर्क कर सकते है ,उनसे बाते कर सकते हैं ?ऐसे बहुत से प्रश्न मेरे दिल और दिमाग को झंझोर रहे हैं क्यों कि ...अपने पापा की मौत के बाद मैंने भी अपने पापा को बहुत शिद्दत से याद किया है उन्हें मिस किया है (और शायद मेरे जैसे कितने ही दोस्त बंधु होंगे जो ठीक मेरे जैसा सोचते होंगे )...तो फिर क्यों नहीं पापा ने आज तक , किसी के माध्यम से मुझ से संपर्क किया ? क्यों नहीं वो मुझ से बात करने आए ?पापा के जाने के बाद मेरी माँ भी तो कितनी अकेली थी अगर आत्मा का कोई वजूद है तो वो क्यों नहीं हम लोगों की खोज खबर लेने आए ?

है कोई उत्तर इस बात का ???????


सच कुछ भी हो ...वो मैं नहीं जानती ....पर अपनी एक सोच आप लोगों के साथ साँझा कर सकती हूँ .....

 

 

आंखे .....

पापा को जब ,याद करके
रोने लगी जब ,ये आंखे
जो रों रों कर ,मैं भूल चुकी  थी 
सुख दुःख की
परिभाषा को
और भूल चुकी थी सब कुछ
केवल इतना याद रखने को
बनते देखा ,मिटते देखा
अपनी ही अभिलाषा को
दिल मे उठा दर्द है
निज  धुँधले अरमानों का
नहीं आज तक सुन पाई हूँ
उर के अस्फुट गानों का
ख़ुशी की तलाश में देखने
चली थी मैं
निर्जीवों के इस समूह में
जीवित कौन निराला है
पर गमो को साथ लिये
आज  हलाहल छलक रहा 
पीड़ित मन की आँखों से
लौटी हूँ मैं खाली हाथों से
देख  उनकी
मौन-निस्पंद पड़ी काया , मृत्यु की बाहों में ||
 अंजु ( अनु )

Monday, November 26, 2012

एड्स (एक सच्ची घटना )

एक दिसंबर ......एड्स दिवस के उपलक्ष्य में




कितनी अजीब बात है कि जिस विषय को बहुत दिन से सोच कर लिखने की सोच मेरे भीतर मुझे परेशां कर रही थी ,नहीं जानती थी कि वही विषय मुझे कहानी ,लेख या कवि़ता के रूप में लिखने को इतनी जल्दी मिल जाएगी | ‘’एड्स ‘ एक ऐसा विषय है जिस पर आज भी हम लोगों के समाज में सबके सामने बात करना गुनाह समझा जाता है,जैसे गोरे और काले का भेद आज भी हमारे समाज में बहुत गहरे तक अपनी जड़ समेट समाया हुआ है वैसे ही है एड्स  |कुछ ऐसा ही एक किस्सा मुझे भी याद आ गया ,ये ना कहानी है ना ही कोई कविता . ये एक घर का और उनकी जिंदगी का सच है (अगर मानो तो ) इस से एक घर तबाह होने को है या ये कहना अधिक सही होगा कि हो ही चुका है. एड्स के बारे में मैं सिर्फ लिख सकती हूँ पर जो जिंदगी का अनुभव वो लोग साथ रहकर ,कर रहे हैं ये वो ही बहुत अच्छे से जानते हैं और उनकी जिंदगी से जुड़े लोग मूक दर्शक बने बस तमाशा देख रहे है एक दम बेबस से .
बात है अहमदाबाद के एक दोस्त की ,जिसने मुझे ये सच्चाई बताई कि दो साल पहले मुम्बई में पोस्टिंग  होने की वजह से वो अकेला ही वहाँ एक साल तक रहा अपने घर से दूर ,वहीँ उसके कुछ दोस्त बने और दोस्ती में घूमना और साथ साथ मौज मस्ती भी शुरू हो गई ,इसी मस्ती के चलते वो सब लोग एक रात थियेटर में फिल्म देखने गए . उन दोस्तों में से एक दोस्त की पत्नी जैसे ही अपनी सीट पर बैठी  तो उसी पल वो उईईईईईइ करती हुई एक दम से खड़ी हो गई ,पर तब तक हांल में अँधेरा हो चुका था ,उसने सीट के नीचे हाथ मार कर कुछ निकला तो कुछ सुई टाईप का निकला तो उसने वो हाथ में पकड़ लिया और मध्यांतर (इंटरवल) में लाइट होने पर जब उसने अपने हाथ में आई सुई को देखा तो उसके साथ एक पर्ची भी थी जिस पर लिखा था ‘’ वेलकम टू द वर्ल्ड ऑफ एड्स ‘’ उस वक्त इस पर्ची पर लिखे इस वाक्य ने सबके दिलों को दहला कर रख दिया और उन्ही दिनों मित्रों द्वारा मेल ये न्यूज़ हमको मिल रही थी कि आज कल सिनेमा हाल्स में कुछ इस तरह की वारदाते हुई है ,कृपया आप लोग सावधान रहे ,पर मैंने कभी इस तरह की मेल को गंभीरता से नहीं लिया था और उसी दौरान उस दोस्त ने इस तरह की घटना पर सच्चाई की मोहर लगा दी | हाल में सभी दोस्त अपनी अपनी राय दे रहे थे ,पर जो होना तय था वो हो चुका था ,वहाँ उस हाल में एक पल गवाए बिना वो सब हाल से बाहर आ गए और सीधा ब्लड टेस्ट करवाने के लिए लेब में गए और दो दिन के इंतज़ार के बाद रिपोर्ट आई और ये दो दिन उन सबके लिए दो सदियों से भी बढ़ कर निकले .पर उस वक्त रिपोर्ट नेगिटिव आई यानी की तब तक सब नोर्मल था,तो सबकी जान में जान आई .पर कुदरत को तो कुछ ओर ही मंज़ूर था . तीन महीने बाद उनके ही परिवार में किसी बुज़ुर्ग को खून की जरुरत पड़ी जो कि उन दोस्ती की पत्नी से मैच करता था ,वो खून देने अस्पताल गई ,खून दे भी दिया गया पर दो दिन के पश्चात अस्पताल से फोन आ गया कि उनके द्वारा दिया गया खून एड्स ग्रस्त है इस लिए उनका खून नहीं दिया जा सकता | वो फोन और वो रिपोर्ट उस घर पर कहर बन का टूटी ,वो हँसता खेलता  परिवार एक ही पल में बिखर गया ,सबके चहरे की मुस्कराहट गायब हो गई . पूरे घर भर में मौत जैसा मौहोल बन चुका था ,बच्चे तो अभी छोटे थे वो नहीं समझ पाए कि कुछ दिनों से पापा मम्मी इतने परेशां क्यों है और बात बात में मम्मी क्यों रोने लगती है ,घर की बेटी जो की उस वक्त ११ साल की थी फिर भी कुछ कुछ समझ रही थी ,घर में हर वक्त बीमारी और डॉ की बाते अब बहुत आम हो गई थी | आज दो साल के बाद उस घर का बेटा ७ साल और बेटी १३ साल की है ,दिनों दिन बीमारी ने अपना विकराल रूप धारण कर लिया है और पैसा पानी की तरह बहा कर भी एड्स जैसी बीमारी पर काबू नहीं पाया जा रहा | एक घर जो उन लोगों का रहने का बसेरा था और अभी भी उस फ्लैट का emi चल रही है ,इस बीमारी के चलते वो बेच कर उसका सारा पैसा इस बीमारी में लग चुका है .हर किसी ने उन्हें अपने जीवन और आपने आस पास से खदेड़ दिया है ,वो लोग अछूतों सी जिंदगी जीने को मजबूर हैं .एक महीने की दवाई लगभग दो से ढाई लाख के बीच में आती है जो एक आम इंसान के बूते के बाहर की बात है . घर के हर सदस्य के खून की जांच महीने दर महीने होती है ये देखने के लिए कि कहीं उन्हें भी तो साथ रहते रहते एड्स तो नहीं हो गया है जिस डॉ से भी पूछा जाता है वो उक्त मरीज को जीवन मात्र दो से तीन साल बताते हैं उस दोस्त की दोस्त को इस एड्स नामक बीमारी ने पूरी तरह से मरने से पहले ही मार दिया है . वो अपनी मौत पल दर पल अपने घर वालो की आँखों में रोज़ देखती है ,उसके बाल झड़ने शुरू हो गए है ,वजन मात्र ३८ किलो रह गया है और रंग एक दम स्याह काला हो चुका है ,एक हँसता खेलता परिवार एक दिमागी तौर पर बीमार इंसान की वजह से तबाह हो गया है . कितना मुश्किल है इस वक्त ये सब लिखना जब कि मैं जानती हूँ कि मैं बस लिख ,पढ़ सकती हूँ पर मेरी वो अनजानी दोस्त अपनी जिंदगी को किस तरह काट रही होगी मैं समझ तो सकती हूँ पर उसके उस दर्द का अंश मात्र महसूस भी नहीं कर सकती | क्या ऐसी ही होती है किसी भी एड्स ग्रस्त मरीज की जिंदगी ?

अंजु (अनु)

Thursday, November 15, 2012

मेरी हिंदी , मेरा लेखन और मेरा संपादन .......गर्व है मुझे की मैं हिंदी में लिखती हूँ

 क्षितिजा ...मेरी बाल्यावस्था
 कस्तूरी ... लेखन का यौवन रूप रंग लिए
 अरुणिमा ...एक परिपक्व सोच ...


बहुत दुःख होता है जब एक पढ़ा लिखा इंसान ...किसी भी भाषा पर  कोई टिप्पणी करता है और उसके लेखन पर उँगलियाँ उठायी जाती हैं .बहुत दिनों से इस बारे में लिखने के लिए सोच रही थी ,बहुत से लोगों को देखा और पढ़ा कि जिसका मन आता है वो लेखन के कार्य या लेखन से जुड़े संपादन को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक कुछ भी कह देता है पर अभी यहाँ पहले मैं बात करुँगी ....भाषा की .हर भाषा का अपना सम्मान है ये बात हम सबको समझनी होगी ....हिन्दुस्तान एक ऐसा मुल्क है जहाँ हर कुछ km के बाद भाषा बदल जाती है इसका मतलब ये नहीं कि आपको जिस भाषा में महारत हासिल है उसके अतिरिक्त आप दूसरों की भाषा को अपने भद्दे शब्दों से नवाज़ देंगे .....अपनी भाषा को महान और दूसरे हो हीन समझने वालो से मेरा बस एक ही प्रश्न है ...कि क्या आप अपनी सभ्य भाषा सीख कर पैदा हुए थे और कैसे पढ़े लिखे इंसान है आप लोग ...जो दूसरों की भाषा को ,उनकी बातों को और उनके द्वारा किए गए कार्यों की सरहना नहीं कर सकते ...आप का बड़प्पन तब होता जब आप अपने से कमतर को अपने साथ लेकर चलते ...उन्हें अपनी भाषा और अपने जितना ही सम्मान देते ...चलिए सम्मान ना सही ...पर अपने शब्दों से उन्हें और उनके आत्मविश्वास को खंडित ना करते ...ये कैसी पढ़ाई है ...ये कैसा  भाषा का फर्क है जो हम इंसानों को ही बांटने पर तुली है | मुझे यहाँ कहने पर ज़रा भी अफ़सोस नहीं है कि ...हमारे यहाँ के पढ़े लिखे तबके से अच्छे बाहर के मुल्क के अनपढ़ लोग है ...जो भाषा ना समझ आने पर भी ईशारो से आपको बात समझा देते है और आपकी बात समझ लेते हैं | यहाँ एक बात उदारहण दे कर जरुर कहूँगी ...कि कुछ साल पहले मैं और मेरे पति ..सिंगापुर ...स्टार क्रूज (ship)पर घूमने गए थे ..वहाँ हर काम कार्ड से होता था ...कमरे से लेकर ...खाना पीना और शौपिंग भी ,अगर कार्ड नहीं तो आप वापिस बिना कार्ड के उस शिप से सिंगापुर शहर भी नहीं जा सकते थे ...और वो ही कीमती कार्ड मेरे पति से कहीं खो गया ...हम दोनों के अलावा वहाँ के अन्य लोग भी परेशां हो गए ....सबने मिल कर कार्ड ढूंढा पर वो नहीं मिला ...तो किसी की सलाह पर हमने फिर से कार्ड बनवाने की कोशिश की ...अब इस में अड़चन ये थी कि ...सिंगापुर ...स्टार  क्रूज शिप पर काम करने वाले वर्करों को इंग्लिश नहीं आती थी और हमको वहाँ की भाषा थाई समझ नहीं आ रही थी | टूटी फूटी हिंदी और ईशारो से हमने उन्हें अपनी बात समझा दी ...मज़े की बात तो देखिए ...वो हिंदी ...भले ही टूटी-फूटी ही सही , समझ गए ...जब कि मैं उस वक्त लगातार उन्हें इंग्लिश में बात समझाने की बहुत कोशिश कर रही थी ...वही ...मेरे पति जिनका  इंग्लिश को लेकर ज्ञान ...बहुत कम है ...उन्होंने उस वर्कर को अपने इशारों और टूटी-फूटी हिंदी में इतने अच्छे से बात समझा दी कि मुझे उस वक्त अपने पति पे गर्व महसूस हो रहा था ...और उन्हें इंग्लिश ना आने का मलाल उस वक्त रत्तीभर भी नहीं था ....उस वक्त ये बात हमने बहुत हल्के से ली थी ....पर आज जब भी इस बात को याद करती हूँ तो मन में सोचती हूँ कि ...उफ़ पढ़े लिखे अनपढ़ अगर ये हिंदी ना होती तो ...तुम इंग्लिश बोलने वालो को आज कौन पहचानता ? इंग्लिश इंग्लिश कहने वाले ये क्यों भूल जाते है कि इंग्लिश को हिन्दुस्तान ई ज़मीन पर हिंदी ने ही जन्म दिया है तो हिंदी माँ हुई इस इंग्लिश की ,और आज बेटा ही अपनी माँ को बुरा कहता है ,गालियाँ देता है ...कैसा वक्त आ गया है कि सच में बहुत अफ़सोस होता है कि जब अपने ही देश में हिंदी और क्षेत्रीय भाषा को हीनभावना से देखा जाता है ...हम ये क्यों भूल जाते है कि जब भी हम अपने देश के किसी भी पाँच सितारा होटल में जाते हैं तो वहाँ दरबान से लेकर स्वागत करने वाले हमको नमस्ते करते है ...और हिंदी में ही कहते और पूछते है कि ''स्वागत है आपका ...हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ?''......बाकि इंग्लिश बाद में आती है .....इसके बाद मुझे नहीं लगता की हम हिंदी को निम्न स्तरीय भाषा का स्तर दे ||  संस्कृत ,उर्दू ,पंजाबी, कश्मीरी ,गुजरती ,उड़िया ,असमिया ,भोजपुरी आदि ...हर क्षेत्र की अपनी भाषा से ही पहचान है ....फिर सिर्फ हिंदी को ही निशाना क्यों बनाया जाता है .....क्या ये सच में इतनी खराब है कि हम सब इस से बचते है ....फिर क्यों एक बच्चा सबके पहले माँ...बुआ .तातातातातात ..दादी या दादू ...क्यों बोलता है ...वो mom(मोम)...आंटी या अंकल क्यों नहीं बोलता ???????और सबसे बडी बात ...हिंदी को निम्न बताने वाले हमेशा गालीगलौच हिंदी में या अपनी क्षेत्रीय भाषा में क्यों देते है ? इंग्लिश में गाली  देना बर्जित है क्या ...या इंग्लिश में गाली ,गाली नहीं लगती ?
जैसे चप्पल अब विरोध का प्रतीक बन गई है. बुश, चिदंबरम और कई दूसरी नामी हस्तियों को  चप्पल मारी गई उसी तरह इंग्लिश जानने वाले और बोलने वालो ने हिंदी को गाली देने का बीड़ा भी उठा लिया है ....फिर भी मैं ये ही कहूँगी कि ये हिंदी मेरी है.....गर्व है मुझे की मैं हिंदी में लिखती हूँ......और हिंदी से ही मेरी पहचान है |

अब बात आती है लेखन की ...लेखन और
संपादन को ना समझने वालो से मैं बस इतना ही कहूँगी कि लिखना यानी कि खुद को खुद में खो देना ,शब्दों से खेलना ,उन्हें सोचना और फिर मन के भाव बना कर एक कागज़ पर उतार देना ...मन के भाव और शब्द मिल कर एक कविता या एक कहानी को जन्म देते है और जन्म लेना वाला अपनी हर अवस्था से गुज़रता है ...पैदा होते ही कोई भी बच्चा भागने नहीं लगता ,उसे भागने के लिए एक साल तक का इंतज़ार करना होता है ...फिर हम ये कैसे सोच लेते है कि लिखने वाला लिखना शुरू करते ही सबका गुरु बनके हम सबके बीच आएगा ...अरे भाई ...उसे भी अपने आप को निखारने में वक्त तो लगेगा ना |
और हर लिखने वाले को मैं ये जरुर कहूँगी कि......लिखने वाला / वाली ..कभी अपने विचारों को दबाएँ नहीं उसे निरंतर लिखते रहे ,लिखना मंजिल नहीं ..कोई गंतव्य नहीं वो तो एक साधना है ,एक अनंत यात्रा जिस पर कदम दर कदम हमको आगे बढ़ना है |लिखना बुद्धूपन जरुर है पर पाप नहीं ...पर लेखन और संपादन पर  कटाक्ष करने वाले इसे पाप घोषित करने में लगे हुए हैं ,जो शब्द गीत बनने की ताकत रखते हैं ,उन्हें गाली बना का पेश किया जा रहा है ...ठीक है हम ये बुद्धूपन में ही खुश है ,कम से कम इस में एक आत्मा  को खुशी देने का गुर तो है ,इसमें किसी के लिए जीवनभर की खुशी तो छिपी है ,एक ताजगी का अहसास है जो जीवन में आगे बढ़ने का हौंसला देता है | इस क्षेत्र में सबकी अपनी अपनी ज़मी है जिस पर कभी कविता तो कभी लेख ...तो कभी कभी कहानी जन्म लेती है.....सबके रंग रूप अलग अलग है पर विचारों की प्रभुता वही है जो मेरे मन में ...जो आपके मन में है ..फर्क बस सोच का है |मेरी कहानी (कमला दास ),एक नौकरानी की डायरी (कृष्ण बलदेव वैद),द्रौपदी (प्रतिभा राय )नौकर की कमीज (विनोद कुमार शुक्ल )स्पाउस शादी का सच (शोभा डे ) ये कुछ नाम है जिन्होंने ये सोच कर नहीं लिखा था कि वो लिखते ही हिट हो जाएंगे ...बस उन्होंने अपने मन की बातों को लिख दिया और ना ही ये पैदा होते ही लिखने लगे थे ....वक्त के साथ साथ इनके लेखन ने गति पकड़ी और ये लोग स्थापित होते चले गए |इसी विश्वास के साथ कि ...''एक मुट्ठी आसमां मेरा भी ''....अपने लेखन को कायम रखे ||

जल उठे नयन में स्वप्न
जीवन मेरा निष्कंप 

लौं से मिल गई लौं 
चमक उठी बिजलियां
पथ के रथ चक्रों से
लपटों को ओढ़
निशा भी अब है मुस्काई  ||

अंजु (अनु)

Saturday, November 10, 2012

दीवाली और धनतेरस का त्यौहार .....सबके लिए शुभ हो






मेरे  आँगन की रंगोली



अरे सुनो तो
आज ...कोई बात शुरू करने से पहले ..
बात करे दीवाली की
यारो बताओ ,कैसे बात करे दीवाली की |
 

घर ,गली की या हो
बाज़ार और शहर की
पर भूलने वाली कभी ना हो ये मुलाकात
दीवाली की ...
बच्चों संग बाज़ार गए तो
क्या क्या लाए और क्या क्या देखा
ये तो बतलाओ ...
ये तो रूहानी रात है 

दीवाली की ...
कहीं ज़ब्त ना हो ज़ज्बात दीवाली के
जब भी कहीं बात हो
दीवाली की ....
भूलने वाली कभी ना को
किसी से वो मुलाकात
दीवाली की ....
तभी तो ,
अच्छी लगती जीत ,दीवाली की
सुना है बुरी होती है मात
वो भी दीवाली की ...
खूब छूटेंगे पटाखे ,फूलझड़ी
और जब लाइन सजेगी अनारों की
तो यूँ लगे जैसे कोई
बरात निकल रही हो आज रात
तारों की ...
लाखों खुशियों की सौगात
लेकर आई ,ये रात
दीवाली की...
कुछ तो तुम भी बोलो यार मेरे
बच्चों संग ,या दोस्तों की
सजेगी महफ़िल  तुम्हारी ...
बोलो किसके साथ
फिर कैसे गुज़रेगी ये रात तुम्हारी
दीवाली की ...

पर भूलने वाली कभी ना हो ये मुलाकात
दीवाली की ....|



अंजु  (अनु)

Wednesday, November 7, 2012

कुछ कम कम सा ....



कभी कभी पूरी बरसात से ,
पड़ने वाली कम कम सी बूंदे
इस तन और मन को
अधिक शांत करती है
वैसे  ही ...
कम बोलने वाले शब्द
कम बाते ,और छोटे वाक्य
जो किताब के पन्नों से होकर ,
इस जिंदगी में
खुद की जगह बना लेते हैं
अपनों के बीच ,
खुद की रोशनी लिए हुए ...
मुझे पसंद है,
बहता हुआ दरिया
नित नए पानी सी
नए ख्यालों और
उमंग से भरी जिंदगी
जो अपने साथ
एक गहरी चुप्पी रखती हो
साथ ही साथ ,
आँखों की भाषा ..
और एक लंबा सा मौन ....
जो इस रुकी हुई जिंदगी को
नया सा अर्थ देता है 
और  देता है...कुछ अपनों में
एक नयी सी पहचान  लिए ,
सिर्फ ,अपने  लिए ||
अंजु (अनु)




आज अजब सी शरारत मेरे साथ हुई,
मेरे घर को छोड़ पूरे शहर में बरसात हुई||
(गोपालदास नीरज जी )

Tuesday, October 30, 2012

यार देखो तो

जिंदगी बहुत छोटी है ...उसे खुशी से जी ले या उसे अपनी छोटी छोटी गलतियों से बर्बाद कर दे ...ये हम पर निर्भर  है ...जब मन करता हम  हँस सकते है तो क्या अपनी  गलती पर ...उसे मान लेना ,उसमें  कैसा अपमान ...कैसी शर्मिंदगी??? क्यों कि जीवन चलने का नाम है ...





एक वो चाँद ऊपर ,एक चाँद तुम मेरे हो
फिर ज़रा कुछ ओर करीब आ कर,यार देखो तो
नैन मिला कर ज़रा एक दफा फिर से देखो तो
पास बिठाकर ,यार एक दफा फिर देखो तो ||

दो या ना दो कोई दाद जीवन में तुम मुझे
पर एक बार फिर से साथ निभाकर,यार देखो तो
ये जान वार देंगे हम तुम्हारे लिए इस जीवन पे
तुम अपना प्यार फिर से लुटा कर ,यार देखो तो ||
 

दूर के चाँद को निहार रही हैं ये आँखे मेरी आज भी
तुम मुझे फिर अपना बना कर ,यार एक बार देखो तो
रो रही थी जो आँखे मेरी इंतज़ामें तुम्हारे
उन  में अपना कोई सपना सजा  कर, यार देखो  तो ||

तेरे आने से हर बार होती है रोशन मेरे घर की  दहलीज़

ओ मीत-मेरे साथ दीए फिर जला कर ,यार देखो तो
हम भी देख लेंगे इस बार  तेरे तीरे-अंजाद
तुम अपना वो प्यार वाला तीर चला कर ,यार देखो तो ||

कितना मज़ा आया था घर बसाने में तेरे साथ
फिर से एक बार वही घर बसा कर ,यार देखो तो
रोज़ पिलाते थे ज़हर कड़वी बातों का तुम-हम
इस बार फिर से प्यार का प्याला पिला कर, यार देखो तो ||


कड़ी दर कड़ी टूट ना ये उम्मीद की ये लड़ी
एक बार फिर से इसे जोड़ कर ,यार देखो तो 

अब जीवन भर साथ निभाएंगे हम तेरा 
इस बार एक नया वादा ,यार करके देखो तो ||

अंजु (अनु)

Friday, October 26, 2012

अब वहाँ मैं भी हूँ ....

यहाँ ..एक पल में ख्याब सजतें है
अगले ही पल टूट जाते है
तो मुझे क्या लुत्फ़ देंगी ,
इस ज़माने की कोई भी  खुशी
बड़ी ही कशमकश में हूँ कि 

क्यों मुझे से वो ही पल
बार बार रूठ जाते हैं ,

जिस से मेरी ही दुनिया 
आबाद होती थी |
क्यों शहर खाली है,आज भी
मेरे दिल के मंज़र से
तो कोई रोशनी कैसे
मुझे ,रोशन करेगी |
मैं ,अपनी ही बेचैनियों से
बेचैन हूँ बहुत ,
तो कैसे ,किसी की बेकरारियाँ
बेक़रार करेंगी मुझे |
कभी खींच लेता था मुझे ,
उसका ज़ज्बा-ए -दिल
पास खुद के
अब खुद में ही खाली हूँ
तो कैसे मैं ,मान लूँ कि ,
अब ,किसी भी दिलबर
का शिकार बनूँगी |
वो आए ,ना आए
अब कोई आरजू भी नहीं
अगर मिले वो कल तो 

क्या समझाएँगे वो मुझे
क्यों कि वो पल
अब कहीं गुम है ,

हम दोनों के बीच  
अब कुछ ,बाकि भी तो नहीं |
आज ,यहाँ कौन सा दिल है जो
जो खाली हैं बिना किस दर्दे-दाग से
हाँ ! हैं जहाँ  सौ-हज़ार ,
अब वहाँ मैं भी हूँ ....
अब  वहाँ मैं भी हूँ 
उसी दर्द की छाँव तले ||

अंजु (अनु)

Thursday, October 11, 2012

आखिरी सफर


ये जानते हुए कि
मैं छोड़ी जा चुकी हूँ
फिर भी एक इंतज़ार है
कि तुम ....खुद से
अपनी गलती  स्वीकार करो 
ताकि मैं लौट सकूँ
जहाँ से मैं आई हूँ 

पर  मैं जानती हूँ 

ये सब भ्रम है मेरे ही मन का |

हां ....सीता के देश में
मैं ..सीता सी नहीं हूँ
वो ,कर्तव्यों के लिए
त्यागी गई
और मैं ...अपने प्यार में 

 धोखे की खातिर...
अपवित्र ,और खरोंचा हुआ शरीर लेकर 
खुद पर लज्जित हूँ
और अब तो दिल पर
एक बोझ सा लदा है
अपनी ही किस्मत का |

मेरे लिए अब ये जरुरी था
कि ढूँढतीं फिरूं ,
अपने जिस्म को ढोने के लिए
वो चार कंधे ,
जिस पर तय करना है,मुझे अब ये
आखिरी सफर ||



अंजु (अनु )

Saturday, October 6, 2012

पल पल बदलता आसमां (एक हवाई यात्रा )

 १५ मिनट में आसमां का बदलता रंग ...पल पल मेरे कैमरे में कैद कुछ पल 


नीचे उतरते वक्त , ऊँचाई से दिखता दिल्ली का नज़ारा 



 पल पल बदलता आसमां का रंग













 लैंडिंग के वक्त खुलते पंख



एक और धुंधला नज़ारा 
 



 अलगे ही पल-पल और नीचे ...और नीचे













 पूरी तरह से रुकने के बाद


सभी फोटो मोबाईल से लिए गए हैं ......अंजु (अनु)

Wednesday, September 19, 2012

दरवाज़े की ओट से ...



बहुत बार ध्यान से देखा है तुम्हें
दरवाज़े  की ओट से ...
तुम रोती हो ,चुपचाप आँसू बहाती हो
बिन किसी शोर के....पर क्यों?
क्या दुःख है तुम्हें ?
अभिव्यक्ति ,प्रकृति व जीवनक्रम
के साथ अंतरद्वंद में डूबी,
जिसे तुम बाँट नहीं सकती
क्या बात है दिल में तुम्हारे,
जिसे तुम ,बतला नहीं सकती
सिसकती हैं धड़कने तुम्हारी ,
पर कभी कोई आवाज़
क्यों नहीं आती ....
इन खुली आँखों से बहते हैं अश्रु ,
बन का अविरल धारा से
पर इनका कोई निशां क्यों नहीं है ?
घूमती फिरती हो घर भर में
पर एक दम चुपचाप सी ...शांत
हथेलियों से पौंछती हो खुद के आँसू ,
कोई प्रतिरोध क्यों नहीं |
साबुन की तरह हाथ से
फिसलते हैं रिश्ते ,तुम्हारे हाथों से
फिर भी ,कोई क्रोध क्यों नहीं है
चहरे पर तुम्हारे |
बहुत मजबूर हो तुम हकीकत में
जानती हूँ मैं
कि अकेली सी तिलमिलाती हो
खुद के बिछौने पर रात भर ,
उलझी हुई डगर है ,
हर कदम बहकता है ,उसका
पर कोई प्रतिकार ,क्यों नहीं इस व्यवहार पर |
तुम तिल-तिल मरती हो रोज़
पता नहीं ,कब बदलेगा तुम्हारी ये ,
मजबूरी का दौर ?

हां! देखा है मैंने तुम्हें दरवाज़े की ओट से
बार बार रोते हुए ||

अंजु (अनु )

Friday, September 14, 2012

परी ...( ममतामयी माँ )


एक  परी आएगी

जो तुझे सुलाएगी
लेगी आँचल में वो अपने
तुझे पलकों के पालने में
         झुलाएगी ||
झूठ मूठ करना आँखे बंद
और करवटे बदलना
वो थपकी देगी
तुम सोने का नाटक करना
जब
वो कान्हा करके बुलाए 
तो .. जा  कर छिप जाना 
वो घर भर में शोर मचाएगी 
उसके सामने आते ही
तुम बुद्धू बन जाना
ऐसे ही वो तुझे लाड़ लड़ाएगी
इस ममता के आगे
तेरी कोई चालाकी काम
नहीं आएगी
तेरी इस अदा पर
वो रोम रोम से
पुलकित हो जाएगी
ज्यादा नहीं वो ,
पास बिठा तुझे
अपने ही हाथों से
फिर खाना खिलाएगी
हाँ ...झाँकना उसकी आँखों में
एक प्यार का निश्छल
सागर पाओगे  ||

हो तेरे जीवन में
काँटों सी उलझने  ,
पतझड़ से रूखे में
पानी के लहरों
सी जिंदगी में
परिचय की टहनी पर
टूटे सन्दर्भों के
जुड़ आयें छोरों पर
मन के भरीपन में
ममतामयी के कान्हा
तुम हर वक्त उसे अपने ही करीब पायोगे
जब हो मन में
मकड़ी से जालो का उलझाव
तो देना उसे बस ...एक हल्की सी आवाज़
वो कान्हा कान्हा कर
दौड़ी चली आएगी ........कि

एक  परी आएगी
जो रख कर सर तेरा
अपनी गोद में
बड़े प्यार से ...फिर से
जो तुझे सुलाएगी
लेगी आँचल में वो अपने
तुझे पलकों के पालने में
झुलाएगी ||




अंजु (अनु)