Tuesday, February 23, 2010

खामोशिया


तेरी खामोशिया बहुत कुछ ब्यान करती है
बंदिशे तेरी ..मुझे तक पहुँचती है
देके आवाज़ तुझे ..रोकने का मन करता है
पर क्या करूँ...तेरी भी कुछ मजबूरिया
मुझे हर बार रोकती है ...
बाँध दिए थे सब अरमां…
दूर किसी डाली से..
मेरे चेहरे से तेरे ग़म को जीया आज भी मैंने ,
मिलके जो हमने जलाया वो दोस्ती का दीया आज भी है.....
(...कृति....अंजु...अनु..)

वजह हो तुम .......

वजह हो तुम .......
मन बेचैन है मेरा ...

याद् बन गये हो,
क्यूंकि साथ नहीं हो तुम .......... हृदय में उतर जाते हो ,
मेरी स्पंदन हो तुम .....
मेरे होने की वजह ,
मीठा बंधन हो तुम ......
आँखों में बसते सपने हो तुम
आती हुई हवायो ने
कर दिया बेताब दरिया कि तरह
कली सी मुस्कान सजती रहे
तुम्हारे होंठो पे ,
जब ढूंढती हूँ कण - कण में ,
सब में व्याप्त हो तुम ,
कैसे भूलूँ तुम्हे पल भर को भी ,
मुझमे शुरू , मुझमे समाप्त हो तुम ..
(......कृति ...अंजु..अनु ..)

प्यार हमारा


प्यार हमारा
जिसका कोई रूप नहीं है जिसकी कोई भाषा ,कोई बोली नहीं है जो समझता है दिल कि ही बातो को एहसास है तो सिर्फ साथ बंध जाने का तमन्ना है तो अब साथ निभाने की हम तो एक पत्थर है उस रस्ते के जिस से महोब्बत के महल बना करते है मुझे ऐसी अदा से नवाज़ा एह खुदा मेरे महोब्बत का जनुन जब दिल में बसता है तो इस दिल में एक अजीब सा तुफ्फान सा उठता है इतने से काफी हो जाये ये सबब ..एह खुदा कि इश्क कि तनहा साँसे भी मुझे महका देती है उनकी यादे के साये जब घेर के मंडराते है तो चिराग महोब्बत के ही उनके मेरे इर्द गिर्द मंडराते है प्यार हमारा

जिसका कोई रूप नहीं है
.......... (..कृति ..अंजु...अनु...)

Friday, July 31, 2009


अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ..
वो कागज़ कि कश्ती ...
वो बारिश का पानी ...
कितन अच्छा तो वो बच्चपन का
खेलना ...मस्ती भरे दिन थे ..मौजो की थी राते
ना कुछ सोचना....न कोई चिंता ...
मस्त मौला सा था सब वातावरण
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ....

क्यों हम बड़े हो गए है ..
दुनिया की रीत में खो गए है
क्यों हम भी मशीनी हो गए है
खो गया है भावनायो का समंदर ...
क्यों अपने भी अब बेगाने हो गए है
क्यों यहाँ बेगाने अपने हो गए है ...........

अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ..
कम से कम दिल के सचे तो होते
अब देखो झूठ से लबालब हो गए है ..
चापुलूसी के घने जंगल में गहरे खो गए है
भटक गए है काया और माया के जाल में
यहाँ आके सब खूबसूरती के दंगल में फंस गए है

अच्छा होता हम बच्चे ही रहते .....
लड़ते झगड़ते पर साथ तो रहते
पर अब तो सब्र का पैमाना यू छलकता है
किसीकी छोटी सी बात भी नश्तर सी लगती है
तोडी सब्र की सारी सीमायें ...
हर दोस्त को दुश्मन बनाते चले गए ...

अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ....
खेलते वो खेल जो मन में आता हमारे
कम से कम दिलो से तो ना खेलते थे हम ..
कभी छिप जाते ...कभी रूठ जाते
कम से कम संगी साथी हमहे
कही से भी ढूंढ़ तो लाते..
मानते हमहे साथी मिन्नतें करके
परअब क्या किसी से रूठना .और क्या है किसी को मनाना
कौन है अब जिस है अपना बनाना ...
हम पहले भी अकेले थे....और
अब भी अकेले है ......
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ...........
(.....कृति ...अनु..(अंजु)..)