आने वाला नववर्ष सबके लिए मंगलमय हो ........................ हर जाने वाला साल
इतिहास बन जाता हैं
हर आने वाला साल
वर्तमान में दाखिल हो जाता हैं
वक्त के आईने में
जब भी जाने वाले साल को देखा
तो -लगा
सबको विरासत में
मिले है ...कुछ सुख -दुःख
कुछ यादे कड़वी -मीठी सी
कुछ दोस्त -कुछ दुश्मन
और मिला है एक काफिला
जो संग अपने चलने को साथ
हो लिया ..अपना बन के
मन में ही बसेरा कर लिया |
है चाह सभी की
बादल धुंधले अँधेरे के
छट जाएँ जीवन से
नवभोर की उजली किरण -सी
आशा जग जाए जीवन में ,
आओ रे मेरे साथियों
मिल कर करे प्रवेश ,
नववर्ष में
एक बार फिर से देखे नए सिरे से
अपना बचपन और जवानी
लिखे रोज एक नयी कहानी
काहे की ये तनातनी ,
छोडो ये उदासी
मारो अपने ही अहम को
आओ नए साल में
शुभ संकल्पों को लेकर
हाथ थाम कर एक दूजे का
साथ चले फिर से मिलजुल कर ||
अनु
इस १९ दिसंबर में मेरा ब्लॉग ...पूरे ३ साल का हो गया ....अपनी व्यवस्ता और कुछ बीमार होने की वजह से मैं ये पोस्ट पहले नहीं डाल सकी ...पर आज मन हुआ कि ...आप सबके साथ अपनी इस खुशी को साँझा करूँ ...नहीं जानती की आप सबको ये कैसा लगेगा ..पर ये लिखते वक्त मेरा मन खुश है ...यहाँ ब्लॉग की दुनिया में मैंने अपने ३ साल बहुत अच्छे से पूरे किये ...आप सबके बीच ...भले ही मेरी पहचान नई है ....पर मेरी खुद से और कविता से ..मेरे भावो को लिखने की ये पहचान बहुत पुरानी हैं ...मैं अनु आप सभी दोस्तों का दिल से आभार मानती हूँ कि मेरी कुछ नादानियों को नज़र अंदाज़ करके ...मेरी लेखनी को आप सबका आशीर्वाद वक्त वक्त पर मिलता रहा है .. अपनी लिखी नई कविता के साथ ...आप सबके सामने फिर से आई हूँ |
मैं और मेरे कवि मन के
घर आँगन में
हर दिन
नए भावों का सूरज
आता हैं
मेरे भीतर बैठा
मेरा कवि मन
मुझ से खूब बतियाता है
एकांत में ,भीड़ में
मुस्कुराते हुए
अपनापन जतलाता है
मैं उसे ,अपने मन की बाते
बतलाती हूँ
और वो शब्दों का साथ
मुझे दे जाता हैं
फिर भी मैं कितनी
बेबस हूँ -विवश हूँ
अपने ही बनाये
मक्कड़ जाल में फंस जाती हूँ
सामाजिक -पारिवारिक
संबंधो में ही उलझ कर
अपने ही भावो और शब्दों
से खुद को दूर करती चली जाती हूँ
पर
मेरा कवि मन सब जानता हैं
कि...इस यथार्थ को
उसे ऐसे ही अपनाना होगा
और मेरा साथ ऐसे ही
ता उम्र निभाना होगा
मैं और मेरा कवि मन ||
अनु
मेरा भी एक कोना हैं ....यहाँ एक कोना मेरा भी हैं
टिक टिक के शोर में ,
धक-धक के जोर में ,
जब आप आएँगे ,
अनमने से मुस्करायेंगे,
फिर एक कोने में दुबकी-सी ,
सुबकी-सी सिमटी-सी ,
को आप सबके बीच ही पाएंगे |
मोनित सी रहती हूँ
ये अब आदत सी हो गई है
इस बिखरी सी दुनियां में
खुद में सिमटी सी रहती हूँ
ऐसे में चुपचाप सुनती हूँ हर धड़कन ,
उस वक़्त की एक लड़ी बन जाती हूँ
और सब के बीच पसर जाती हूँ |
सिमटे से आँचल पर ,
बदली सी छा गई है
समय की चाल पर
जो हर दिन एक
नई कहानी सुनाती हैं ..
हँसना कम..यहाँ ज्यादा रोना हैं,
इस अजीब से आलम में,
ऐसा भी होना हैं
सिमटी-सी सीमा में ,
खामोशी के रंग में संवरा सलोना हैं ,
मेरा भी एक कोना है ||
अनु
नारी मन की पीढ़ा को कभी चलते हुए कहीं पढ़ा था ...उस वक़्त ये कविता बहुत अच्छी लगी थी ...इस लिए इसे संजो के रख लिया था ...आज फिर यूँ ही चलते चलते इस पर नज़र पड़ी....इस कविता के लेखक या लेखिका का नाम नहीं जानती ...फिर भी आप सबके साथ इसको साँझा कर रही हूँ ...........
तवायफ़................... कुछ सवाल उठ रहे है मन मेंकिस को बुलाऊं इस सूनेपन में सितारे भी तो नज़रनहीं आते इस गगन मेंलेकिन इस ख़ामोशी में भीकोलाहहल सा हो रह है मन में.......चुल्हे कम दिलअक्सर जलते है यहाँ.कुछ सवाल उठ रहे है मन में किस को बुलाऊं इस सूनेपन में सितारे भी तो नज़र नहीं आते इस गगन में लेकिन इस ख़ामोशी में भी कोलाहहल सा हो रह है मनइठला कर चमक रही है बिजलीजैसे आग लगने वाली हो तन मन में..........शराब के नशे में गिरते है गिर कर कम ही संभलते है यहाँइस महखाने ने मुझे इतना बुरा बना दियामेरा नाम भी लेने से भी लोग डरते है यहाँ………किसी ने बजारूकिसी ने बिकाऊं कहा मुझेकैसे गुजारुंगी अब मैं ये जिन्दगीहर दिन सजना ,हर दिन संवरना मगर किस के लिए दिन में न चैन और रात भर जगनामगर किस के लिएखूब बजती है शेहनाई रात भरसुबह उठती है अर्थी अरमा मरते है यहाँ………अब मै भी जी जी करमरने लगी हूँ ||