भूली बिसरी यादें ......फादर डे...यानी फादर(पिता) का दिन ..ये सिर्फ एक दिन की यादों में नहीं सिमटा हुआ ....पर हर दिन उनकी याद में मेरा अपना है |
५ अक्टूबर १९८३ ...ये वो दिन है जब नियति के क्रूर हाथों ने और पंजाब में सर उठा चुके आतंकवाद में, हिन्दुओं पर हुए पहले आतंकी हमलें ने हम से हमारे पापा को छीन लिया | बस से उतार कर सिर्फ उन ६ लोगों को गोलियों का निशाना बनाया गया जो हिंदू थे और फिर उसके बाद पंजाब में आतंकवाद का निशाना बनने वाले बहुत से परिवार तबाह हुए | आतंकवादी की एक गोली कितने मासूमों का दिल और जीवन छलनी करती है क्या आतंकवादी कभी इस बात को जान पाएँगे?
मैं आज तक ये नहीं जान पाई कि आखिर एक इंसान किसी दूसरे इंसान को कैसे मार सकता है ? मैं आतंकवाद या किसी ओर प्रकार की हिंसा की कट्टर विरोधी हूँ क्यों कि हिंसा में किसी निर्दोष की बलि, उसके परिवार को भी बलि की वेदी तक साथ ले जाती है| मारने वाला मार कर चला गया, बिना ये सोंचे कि इसके पीछे के परिवार का क्या होगा और मरने वाला इस जहान की तकलीफों से छूट गया, पर उसके पीछे से छूट जाने वाला परिवार किस तरह से खुद को संभालता है,उनके दुःख-तकलीफ और रस्ते में आने वाली रुकावटें, सम्पूर्ण परिवार को वक्त-वक्त क्या क्या भुगतना पड़ता है, उस दर्द को हम लोगों से ज्यादा कोई नहीं जान सकता |
संयुक्त परिवार होते हुए भी जिस तरह अकेलपन को भोगा गया, उसकी कड़वी यादे आज भी मेरे मानस पर अंकित है | उस अहसास को कि हम अब बिना बाप की संताने(मेरे भाई और मैं) हैं, हर किसी का हम से मुँह मोड़ लेना,और सबकी ये सोच कि 'कहीं हम को ही ना पालना पड़े?'सबको हम से दूर ले गई | पर एक वर्ष बीतते-बीतते,वक्त बदला हमने गिरते-ठोकरे खाते हुए खुद को संभाल ही लिया |
भाइयों के काम पर चले जाने के बाद मैंने मम्मी को घंटो रोते हुए देखा,उस वक्त में बेबस थी और मम्मी को बहुत ज्यादा समझने की अवस्था में नहीं थी पर आज मैं उनके दर्द को बहुत अच्छे से समझ सकती हूँ | ऐसा नहीं कि मैं कभी नहीं रोई पर मैंने अपनी मम्मी के आगे कभी नहीं रों पाई या शायद मैं उन्हें ओर रुलाना नहीं चाहती थी | वैसे भी बहुत शांत और चुप रहना मुझे भाता था और उसी पापा की लाडली की आँखों में आँसू, माँ कैसे देख सकती थी,ये ही सोच कर, मैंने हर दुःख अपने मन में छिपा कर बरसों निकाल दिए |
दिनों-दिन और फिर सालों साल कलंडर के दिन और साल बदलते रहें और हर साल की ५ अक्टूबर मेरे और मेरे परिवार के लिए हमेशा ही मायूसी लेकर आता है | इस दिन मैं अपने घर(शादी के बाद ससुराल में ) होते हुए भी, अपने मन से अपने पापा के साथ ही होती हूँ |आज भी अतीत की वो घटना कभी कभी मुझ पर सपनों में हावी हो कर डरा जाती है| आज भी चुपके से रों लेना, किसी को कुछ नहीं बताना,ये मेरी आदत है |
जिन्दगी बहुत कुछ सिखाती है कभी हँसाती कभी रुलाती है |आज सभी फादर डे मना रहे है, पर मैं क्या करूँ, मुझे पापा की यादें भी अब धूमिल सी नज़र आती है जहाँ तक सोचने की कोशिश की वहाँ तक जिन्दगी के सब पन्ने खाली से नज़र आते हैं | छोटी उम्र में पापा का जाना, मतलब की यादों का धुंधला पड़ जाना है ....आज इतना वक़्त बीत गया की अब यादें भी साथ छोड़ रही है|
याद है तो बस इतना की ....''पापा भी कभी हम लोगो के साथ हुआ करते थे ''....पर पिछले ३० सालों से उनके बिना जीना कैसा लगा होगा ?शायद ही मैं कभी अपने शब्दों में व्यक्त कर पाऊं | फिर भी आज के दिन एक बेटी अपने पापा को उतना ही मिस कर रही है जितना की बाकि सब बेटियाँ |अपने पापा को भावपूर्ण श्रद्धांजलि के साथ नमन, उस पिता को जिसने अपनों के लिए एक संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत किया और उन्हीं अपनों ने उन्हें और उनके परिवार को उनके जाने के बाद एक दम से भूला दिया |
नतमस्तक हूँ उस पिता को,जिसने मुझे जाने से पहले ये शिक्षा दी कि ''विचार शुद्धि ,कर्म और अर्थ पूर्ण जीवन'' को हमेशा महत्व देना...इसी विचारधारा और उनके द्वारा दिए गए नाम ''अनु'' और उनकी दी गई अंतिम सीख के साथ उन्हें अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि ||
अंजु(अनु)