Tuesday, September 7, 2010

क्या गुनाह है मेरा

क्या गुनाह है मेरा

क्या गुनाह है मेरा
खफा क्यों हो

दिल तोड़ने वाले
सितमगर बेवफा कहलायेगा
गम में रहकर भी
जीने कि कोई किरण
दिखाई नहीं देती है
क्या गुनाह है मेरा
खफा क्यों हो

जो हुए टूटे खिलौने को
फिर से जोड़ दे
यूँ ना मुझे पे तुजुर्बे करो
कुछ भीतर से कुछ बाहर से
मन जल जाएगा यदि अब टूटा तो
क्या गुनाह है मेरा
खफा क्यों हो

प्रेम का अन्य आधार नहीं है
स्मृतियों का शेष पड़ाव नहीं है
ना जाने कल कौन डगर होगी
अगली मंजिल कौन सी होगी
आ जाये मौत कि खबर
और मै पूंछु तुम से कि
क्या गुनाह है मेरा
खफा क्यों हो
(...कृति ....अंजु...(अनु..)

1 comment:

Anonymous said...

kya gunhaa hai mera.......khaffa se kyu ho

waha........jab apna koi ruth jaye tho kaisa lagta hai bahut acche se samjhti hai aap..dil se likhi gayi kavita