बहुत बार ध्यान से देखा है तुम्हें
दरवाज़े की ओट से ...
तुम रोती हो ,चुपचाप आँसू बहाती हो
बिन किसी शोर के....पर क्यों?
क्या दुःख है तुम्हें ?
अभिव्यक्ति ,प्रकृति व जीवनक्रम
के साथ अंतरद्वंद में डूबी,
जिसे तुम बाँट नहीं सकती
क्या बात है दिल में तुम्हारे,
जिसे तुम ,बतला नहीं सकती
सिसकती हैं धड़कने तुम्हारी ,
पर कभी कोई आवाज़
क्यों नहीं आती ....
इन खुली आँखों से बहते हैं अश्रु ,
बन का अविरल धारा से
पर इनका कोई निशां क्यों नहीं है ?
घूमती फिरती हो घर भर में
पर एक दम चुपचाप सी ...शांत
हथेलियों से पौंछती हो खुद के आँसू ,
कोई प्रतिरोध क्यों नहीं |
साबुन की तरह हाथ से
फिसलते हैं रिश्ते ,तुम्हारे हाथों से
फिर भी ,कोई क्रोध क्यों नहीं है
चहरे पर तुम्हारे |
बहुत मजबूर हो तुम हकीकत में
जानती हूँ मैं
कि अकेली सी तिलमिलाती हो
खुद के बिछौने पर रात भर ,
उलझी हुई डगर है ,
हर कदम बहकता है ,उसका
पर कोई प्रतिकार ,क्यों नहीं इस व्यवहार पर |
तुम तिल-तिल मरती हो रोज़
पता नहीं ,कब बदलेगा तुम्हारी ये ,
मजबूरी का दौर ?
हां! देखा है मैंने तुम्हें दरवाज़े की ओट से
बार बार रोते हुए ||
अंजु (अनु )
56 comments:
bahut ache anu di
बहुत सुन्दर अंजु जी......
बड़ा खुल के रोने को जी हो आया आपकी ये रचना पढकर....
नमन आपकी लेखनी को...
अनु
दरवाजों ने अपनी ओट में न जाने कितनी सिसकियाँ थाम रखी होंगी | सुन्दर लिखा है आपने |
हृदय स्पर्शी रचना !
मजबूरियाँ साँसों के साथ गूँथ जाती हैं,जो निरंतर चलती हैं-बिना किसी भाषा के
साबुन की तरह हाँथ से फिसलते रिश्ते वाह क्या बात है सुन्दर
्बस यही तो होती है औरत
अनु जी,
हम एक साथ ही थे, हिन्द-युग्म के मंच पर लेकिन फरवरी के बाद से आपसे यह यह पहला संबोधन है।
दरवाजे की ओट से कविता ने जिस तरह से रिश्तों की कलईयाँ खोली है कि वो किस तरह फिसल जाते हैं हाथ से....वाह,
हथेलियों में खारापन कहाँ से और कैसे आता है? ऐसे बहुत से प्रश्नों के उत्तर तलाशे आज, इस कविता के माध्यम से...
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
कब बदलेगा तुम्हारी ये ,
मजबूरी का दौर ?
नारी मन की व्यथा का जीवंत चित्रण... शायद वक़्त जल्दी बदल जाये और ख़त्म हो ये मजबूरी का दौर....
behad marmik abhivyakti .sach kaha aapne aise kitni hi jindagiya hoti hai jo akele me sisakti rahati hai .........til til kar marti hai ...
मुकेश जी आपको यहाँ देख कर अच्छा लगा ...कुछ पल होते हैं इस जिंदगी में ...जो हमेशा के लिए सहेज लिए जाते हैं ...वो थे ...मेरे पहले संग्रह का विमोचन ...और वहाँ पर मिले साथी ...जो हमेशा याद रहेंगे ...आभार आपके यहाँ आने और टिप्पणी के माध्यम से जुड़ने का ..
हर कदम बहकता है ,उसका
पर कोई प्रतिकार ,क्यों नहीं इस व्यवहार पर |
तुम तिल-तिल मरती हो रोज़
पता नहीं ,कब बदलेगा तुम्हारी ये ,
मजबूरी का दौर ?
हां! देखा है मैंने तुम्हें दरवाज़े की ओट से
बार बार रोते हुए ||
जीवन का यही अंतर्द्वंद झलक जाता है कभी कभी जाने अनजाने और हमारा निर्मल मन इन्हें बयां कर देते है आंसू
नारी का अंतर्द्वंद ...भावपूर्ण रचना
behad bhawpoorn.....
हां! देखा है मैंने तुम्हें दरवाज़े की ओट से
बार बार रोते हुए ||
ज़िन्दगी की व्यथा ...ऎसी ही तो है ...
बहुत गहन एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति अंजू जी .....!!
शुक्रिया अनुपमा जी
दर्द की मौन अभिव्यक्ति...भावपूर्ण रचना!!
हम सब देखते हैं अपने आस पास बस शब्दों में बयान आप ही कर पाई !
संवेदनशील अभिव्यक्ति !
very nice
please see at
http://ajmernama.com/guest-writer/18059
marmik rachna....sach me duniya bahut age nikal gayi hai par abhi bhi aise hi ehsas aisa hi daur rehta hai
तुम रोती हो ,चुपचाप आँसू बहाती हो
बिन किसी शोर के....पर क्यों?
yahi chuppi to rone ko majboor karti hai .
dil ko chhukar ankho se bahne wali rachna , saadar !
भावमय करते शब्द
तुम रोती हो ,चुपचाप आँसू बहाती हो
बिन किसी शोर के....पर क्यों?
अनुत्तरित से प्रश्न ... सटीक विवेचन .... सुंदर प्रस्तुति ....
दरवाजे की ओट से झांकते कई बार रिश्ते हाथ से फिसलते देखा है |बढ़िया प्रस्तुति |
आशा
man ki is vyatha ko mahsus karne wala hi ye kavita likh sakta hai..
dil ke kisi kone me chipe huye dukh shabdon ka sahara lekar bahar aa hi jate hai..
bahut hi emotional kavita..
darvaje ki ot se kai anpadhe bhav padh liye aapne..sundar abhivyakti..
बहुत ही बढ़िया । मेरे नए पोस्ट समय सरगम पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद।
एक औरत ही औरत की व्यथा को समझ सकती है ......बेहद भावपूर्ण अंजुजी
वाह....बहुत ही सुन्दर।
chhip kar bahut kuchh dikh jata hai...
bhavpurn... ek dum alag..!!
साबुन की तरह हाथ से
फिसलते हैं रिश्ते ,तुम्हारे हाथों से
फिर भी ,कोई क्रोध क्यों नहीं है
चहरे पर तुम्हारे |
very sensitive.... n touchy anu ji...
DIL KI BAAT KAH DI JAISE..
vivashata ke swar kasak bhar eman ko gamgin karte hain. rachna ke bhav achchhe lage. badhai!
बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
तुम तिल-तिल मरती हो रोज़
पता नहीं ,कब बदलेगा तुम्हारी ये ,
मजबूरी का दौर ?
...जब मजबूरी नियति बन जाती है तब पूछो मत दिल की हालत क्या होती है ..
मर्मस्पर्शी रचना
बेहद भावपूर्ण रचना !
अंतर्मन को कही गहरे तक भिगो गयी आपकी यह रचना
स्त्री की विडंबना का सटीक चित्रण -shubh-kaamnaaye -aditipoonam
अंतर्मन को कही गहरे तक भिगो गयी आपकी यह रचना
स्त्री की विडंबना का सटीक चित्रण -
तुम रोती हो ,चुपचाप आँसू बहाती हो
बिन किसी शोर के....पर क्यों?
यह कविता एक दर्शन है जो हमारे संवेदनशील मन को स्पंदित करतीं है
कभी ऐसा भी महसूस होता है.
बहुत सुंदर और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति.
अपने 'आप' को देखती स्त्री की अंतर्कथा, बहुत अच्छी रचना, बधाई.
भावनाओं का प्रवाह मन को आप्लावित कर देता है...बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी ..
मर्मस्पर्शी रचना
अनु जी , यथार्थ चित्रण है आपकी लेखनी में....
फिसलते हैं रिश्ते ,तुम्हारे हाथों से
फिर भी ,कोई क्रोध क्यों नहीं है
चहरे पर तुम्हारे |
कितना मार्मिक चित्रण किया है अंजू जी.... दिल को छू गयी आपकी रचना...बधाई...
बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति |
न्यूज़ पोर्टल
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति
प्रभावशाली और मार्मिक पंक्तियां।
सार्थक सृजन, आभार.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.
phli dfa aapke blog pr ai hun . kvita bhut achchhi hai vishesh kr is drishti se ki ek stri ki vedna ko bhut mrmsprshi dhang se aapne kvita me utara hai . bhut sare swaal aapne uthaye hai , ek ourat hone ke nate kya hi achchha ho jo in swaalon ke hi jwaab deti ek our sshkt rchna hum pathko ko jld hi pdhne ko mile .
बहुत मर्मस्पर्शी रचना......
पता नहीं स्त्री को सब कुछ झेलने में मज़ा क्यों आता है, वरना सदियां हो गईं, स्त्री बदलती क्यों नहीं?
सुन्दर और मर्मस्पर्शी.
साबुन की तरह हाथ से
फिसलते हैं रिश्ते ,तुम्हारे हाथों से
फिर भी ,कोई क्रोध क्यों नहीं है
चहरे पर तुम्हारे |
kitna niswarth bhav bataya rishtey ka. amazing.
Rishto par swal karti meri Post KYUN?????
http://udaari.blogspot.in
भावनाओं एवं मानव स्वभाव का बेहतरीन वर्णन..
Post a Comment