एक वक़्त था जब उसे किसी ना किसी ऐसे इंसान की जरूरत पड़ती थी ...जिसे वो अपने दिल की बात बता सके...किसी के साथ अपने दिल की बातें बाँट सके, पर उस वक़्त किसी ने उस का साथ नहीं दिया ...पर आज हर बात पलट हो रही है,अब यहाँ ...घर भर के लोग उसे आवाज़ देते हैं और वो अपनी दुनिया में कहीं बहुत दूर खो जाना चाहती है |
आज उसका दिल सब बातों से और इस दिखावटी दुनिया से भर चुका है | एक इंसान जिसे वो दिल से पसंद करती थी और उसे बार बार आवाज़ देने पर भी अपने करीब कभी महसूस नहीं कर पाई ...आज वही इंसान उसे क्यों बार बार आवाज़ देकर अपने करीब करने की कोशिश करता है |
एक इंसान जिसे उस ने दिल से अपना बच्चा समझा और ये चाह की वो उसकी सुने और थोड़ा सा उसके मन मुताबिक खुद को ढाल दे ...पर वो कभी ऐसा नहीं कर पाया ...तो आज वो ही इंसान क्यों बार बार उसे ''माँ'' कह कर अपने करीब करने की कोशिश करता है |
उसके अपने ही विचारो की एक दुनिया है और वहाँ बसने वाले किरदार भी उसके अपने हैं | सोचने पर वही किरदार कभी भाई,कभी बेटा तो कभी प्रेमी बन कर उसका पीछा करते हैं |और वो अपने कानों और आंखो को बंद कर बे-हताशा भागती है ...इन सब से अपना पीछा छुड़वाने के लिए के लिए |उसके मन में....ईर्ष्या या घृणा के विचार प्रवेश करते ही उसके जीवन से सारी खुशी गायब हो जाती है |उसे लगता है कि उसकी कही बातों को गलतियों का रूप देकर, उसकी ही नज़रो में नीचे गिराने का षड्यंत्र रचा जाता है |जिसे वो चाह कर भी आज तक बादल नहीं सकी है |न्याय की आशा छोड़ कर उसने अपने जीवन से समझोता करना भी सीख लिया है |
रात भी खामोश है, तारे भी शांति से अपनी अपनी जगह पर ही टिके हुए हैं |पर उसके सभी पात्र अपनी अपनी पीड़ा के साथ ही उसके संग जगे हुए हैं |पता नहीं क्यों वो हर बात को सोच-सोच कर खुद को लेकर दुखी क्यों हो जाती है ? उसका मौन सनातन रहस्य की तरह उसे ही क्यों ठगता रहता है ?
ऐसा भी नहीं है कि उसके भीतर अब तक किसी ऋतु ने दस्तक नहीं दी हो |बस फर्क इतना है कि उसके दरवाजे पर कोई भी ऋतु स्थाई रूप से अपना घर नहीं बसा पाई है....उसे ऐसा ही लगता है |शायद तभी उसे ऐसा लगता है कि सबको सम्मान देने की भावना ही उसे सबसे ज्यादा दुख पहुँचती है |
उसने कभी अपने रिश्ते या बाहर के रिश्तो में दिल से फर्क नहीं किया फिर क्यों उसे बार बार इस बात का अहसास करवाया जाता रहा है कि ''वो औरत है''....उसे अपनी मर्यादा में रहना ही होगा |
शादी के इतने साल अपनी जाइंट फॅमिली को देने के बाद भी ''वो'' आज तक ये नहीं समझ पा रही कि एक छोटी सी लड़ाई ने उसे पति की गाली-गलौच और काटाक्ष भरी बातों में एक माँ और एक पत्नी से सीधे ''ये औरत'' (बदचलन)कैसे बना दिया ????
अंजु(अनु)चौधरी
20 comments:
यही विडंबना है... मर्मस्पर्शी कहानी
उसने कभी अपने रिश्ते या बाहर के रिश्तो में दिल से फर्क नहीं किया फिर क्यों उसे बार बार इस बात का अहसास करवाया जाता रहा है कि ''वो औरत है''....उसे अपनी मर्यादा में रहना ही होगा। …
यही तो एक औरत के जीवन का कटु सत्य है अंजु जी। बहुत सुन्दर और सशक्त कहानी।
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जब भी कोई कलम उठाये
अपनी व्यथा,सामने लाये ,
खूब छिपायें, जितना चाहें
फिरभी दर्द नज़र आ जाये
मुरझाई यह हँसी, गा रही, चीख चीख, दर्दीले गीत !
अश्रु पोंछने तेरे,जग में, कहाँ मिलेंगे निश्छल गीत ?
यही विडंबना है हमारे समाज की सोच की जो आज भी पुरातन है , आज भी औरत को महज वस्तु ही समझती है इंसान नहीं , एक ऐसा इंसान जिसे सबके बराबर मान सम्मान और स्वाभिमान की जरूरत होती है ………… काहे के रिश्ते मन बहलाव के खिलौने भर हैं , समाज में रहने के साधन भर क्योंकि असलियत में तो सबसे कमज़ोर कडी होते हैं एक ठेस और सारे रेत के महल धराशायी , एक ठोकर में अर्श से फ़र्श पर आखिरी साँस लेते दिखते हैं क्या ये रिश्ते होते हैं ? क्या इन्हें ही रिश्ते कहा जाता है जहाँ सिर्फ़ स्वार्थ ही स्वार्थ भरा होता है , सिर्फ़ अपनी मैं को ही स्थान दिया जाता है दूसरे के स्वाभिमान को भी कुचल कर …… क्योंकि स्त्री है वो मानो स्त्री होकर गुनाह किया हो , जिन्हें जन्म दिया , तालीम दी , साथ जीये हर सुख दुख में उनके लिये भी महज एक औरत जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं तो इसे क्या कहेंगे , एक धोखा , एक ढकोसला भर ना ……… कहना आसान है कैसी औरत है ये मगर औरत बनना बहुत मुश्किल खुद को नकारती है तब बनती है एक सम्पूर्ण औरत , खुद को मारती है तब बनती है एक सम्पूर्ण औरत , खुद से लडती है तब बनती है एक सम्पूर्ण औरत और यदि वो ही औरत गर गलती से उफ़ कर दे तो कहलाने लगती है बदचलन , बेगैरत , बेहया औरत और हो जाती है उसकी सम्पूर्ण तपस्या धूमिल , उम्र भर का स्नेह , वात्सल्य ,प्रेम हो जाता है चकनाचूर ……… जानते हो क्यों क्योंकि कहीं ना कहीं भावनात्मक स्तर से ऊपर नहीं उठ पाती है औरत , वक्त के मुताबिक नहीं ढल पाती है औरत , सबसे बडी बात प्रैक्टिकल नही बन पाती है औरत और उन संस्कारों को नही बीज पाती है आने वाली पीढी मे औरत ……… त्याग तपस्या और वात्सल्य के आवरण से निकलने पर ही औरत लिख सकेगी एक नया औरतनामा और तभी सुधरेगी उसकी स्थिति और समाज की मानसिकता ।
kadva hai par sach tho yahi hai....sadi gujar gayi....kuch badlav aye hain par fir bhi....yahin sach hai
kadva hai par sach tho yahi hai....sadiyan gujar gayi...bahut kuch badla hai...fir bhi sach yahi hai
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन स्वामी विवेकानन्द जी की १५० वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शानदार,सुंदर आलेख ...!
RECENT POST -: कुसुम-काय कामिनी दृगों में,
शानदार,सुंदर आलेख ...!
RECENT POST -: कुसुम-काय कामिनी दृगों में,
हर रोल को निभाती हुई औरत के लिए कोई उसका होने का रोल तभी निभाता है जब उसे खुद उस औरत कि जरूरत होती है ......
सटीक .. यथार्थ
शब्दों को एक हद तक ही अहमियत दी जानी चाहिए...औरत को औरत कहना गलत तो नहीं..क्रोध तो इन्सान को अर्ध पागल कर ही देता है, क्रोध में कही किसी बात को दिल से लगा लेना कोई बुद्धिमानी नहीं कही जाएगी..जीवन ने जो अच्छे पल दिए हैं उन्हें भी तो स्मरण किया जा सकता है...पर अहंकार का भोजन ही दुःख है वह दुःख पर ही पलता है, आत्मा सुख से उपजी है वह हर हाल में सुखी होना जानती है
समाज की सोच आज भी पुरातन है
कटु सत्य ... जो सिर्फ खून के रिश्ते को ही रिश्ता समझते हैं वो इससे आगे सोच भी क्या सकते हैं ... औरत, माँ, बहन, बेटी ... शायद किसी भी रिश्ते को वो समझ नहीं पाते ...
जब भी औरत की बात की जाती है तो वही पुरातन संस्कार उसको घेरे दीखाई देते है जबकि समाज हर छण बदलता हुआ महसूस होता है फिर भी औरतों के मामले में उसकी सोच रूडीवादिता पर टिकी हुई है.आपने बड़ी खूबसूरती से उसकी मानसिक सोच को उजागर किया है जहां वह त्रस्त होते हुए भी पूरी जिन्दगी अपने परिवार के लिए होम कर देती है.यह एक कडवी सच्चाई भी है और पूरा समाज मूक-दर्शक बना खड़ा दिखाई देता है,सुन्दर आलेख पढवाने के लिए आभार.
ओह ! बदलना होगा सोच को !
प्रभावपूर्ण, मार्मिक कहानी।।।
बहुत सुन्दर व सशक्त अभिव्यक्ति
उम्दा लेख
जब हर राह पर ये औरत सुनना पड़े तो लगता हैं की वाकई में???
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