फेसबुक पर एक लेखक वर्ग ऐसा है जो हम जैसी घरेलू लेखिकाओं से बहुत डरता है क्योंकि हमारा लिखा (चाहे थोडा लिखें) तारीफ़ पाता है |ज्यादा की चाह के बिना हम अपना काम निरंतर करते रहने में विश्वास रखती हैं , इसी लिए हमारे मित्र और नए जुड़ने वाले दोस्त अपने आप से हमारे लिखे को छाप कर, वक़्त वक़्त हमें प्रोत्साहित करते हैं |ऐसे में अगर हम दिल से उन्हें आभार व्यक्त करते हैं तो इस से उस लेखक वर्ग को परेशानी क्यों होती है |
क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि ऐसे लोग घरेलू महिलाओं(जो अब लेखिका भी हैं) को आगे आने ही नहीं देना चाहते या फिर कोई उन्हें भी टक्कर दे सकता है, इस बात से डरते हैं |
ख़ैर ये कुछ जाहिलों की सोच है जिसके चलते हमारे लेखन में कभी कोई फर्क ना आया है और ना आएगा...जिसे जो सोचना है सोचे |
ख़ैर ये कुछ जाहिलों की सोच है जिसके चलते हमारे लेखन में कभी कोई फर्क ना आया है और ना आएगा...जिसे जो सोचना है सोचे |
गजेन्द्र साहनी के अखबार ''सरोकार की मिडिया'' में अपनी कविता को देख कर उतनी ही प्रसन्नता हुई थी जितनी की पहली बार छपने पर हुई थी ...तब भी आभार व्यक्त किया था और आज भी गजेन्द्र साहनी की''सरोकार की मीडिया'' को आभार एवं शुभकामनाएँ .......
अखबार की कटिंग के साथ साथ अपनी लिखी कविता भी यहाँ पोस्ट कर रही हूँ ....
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उसके लिए
उसके लिए
उसके लिए
आधी से ज्यादा जिंदगी
एक दुस्वप्न सी बीती
आधी से ज्यादा जिंदगी
एक दुस्वप्न सी बीती
उसने
ना जाने कितना ही वक़्त
अपने बुने सूत के धागों में
निकाल दिया
मांगे हुए या दान में दिये गए
रेशों में लपेट लिया था खुद को
ना जाने कितना ही वक़्त
अपने बुने सूत के धागों में
निकाल दिया
मांगे हुए या दान में दिये गए
रेशों में लपेट लिया था खुद को
घर की बड़ी बहू होते हुए भी
वो कभी ना सजी,
ना संवरी
बस हाथ में चार पितल की चुड़ियाँ डाले
हमेशा करछी हिलाते हुए ही मिली
ना जाने कितने ही सपने
उसके भीतर
अपनी मौत मर गए
उसके भीतर
अपनी मौत मर गए
मौसम भले ही बदलने
बदला ना नसीब उसका,
पलंग का एक कोना पकड़े हुए
कभी खुद पर हँसती
कभी नसीब को रोती
कभी खुद पर नाराज़ होती
गीली आँखे लिए
नज़र आ जाती थी
बदला ना नसीब उसका,
पलंग का एक कोना पकड़े हुए
कभी खुद पर हँसती
कभी नसीब को रोती
कभी खुद पर नाराज़ होती
गीली आँखे लिए
नज़र आ जाती थी
अच्छे दिनों की आस में
उसका
पल पल बीत गया
दहेज का भी सामान
धीरे धीरे हाथ से
फिसल गया
ना कोई अच्छा दिन आया
ना इज्ज़त ना सम्मान मिला
पर उम्मीद और इंतज़ार का
एक बड़ा सा पहाड़
तोड़ने को मिल गया
उसका
पल पल बीत गया
दहेज का भी सामान
धीरे धीरे हाथ से
फिसल गया
ना कोई अच्छा दिन आया
ना इज्ज़त ना सम्मान मिला
पर उम्मीद और इंतज़ार का
एक बड़ा सा पहाड़
तोड़ने को मिल गया
फिर भी ...कुछ खास सी
'दिव्य' थी वो मेरे लिए
उसके टूटे-फूटे ब्यान
आज भी दर्ज है
मेरी यादों में
उसका चलना, बैठना,उठना
बात बात पर बिदकना
और फिर झट से मान जाना
ऐसी ही बहुत सी असंभव बातें
जो वो किया करती थी
आज भी अंकित है
स्मृतियों में मेरी
मेरे रीति -रिवाजों की तरह ||
'दिव्य' थी वो मेरे लिए
उसके टूटे-फूटे ब्यान
आज भी दर्ज है
मेरी यादों में
उसका चलना, बैठना,उठना
बात बात पर बिदकना
और फिर झट से मान जाना
ऐसी ही बहुत सी असंभव बातें
जो वो किया करती थी
आज भी अंकित है
स्मृतियों में मेरी
मेरे रीति -रिवाजों की तरह ||
अंजु चौधरी अनु
5 comments:
aapki kavitayen nirantar achhi ho rahi hain. yah kavita bhi achhi hai. badhai aur shubhkaamnayen.
सही कहा अरुण जी ने
बेहतरीन कविता.......
अच्छा लेख है ।Seetamni. blogspot. in
बहुत सुन्दर रचना ।
Seetamni. blogspot. in
बहुत सी स्त्रियों की यही कहानी है ...
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