Monday, February 25, 2013

एक भूमिका ......


 
 
हर डग पर हर पग पर जाने अनजाने ही,
एक बूंद गिरती है और बिखर जाती है |
आज ओशो की किताब पढ़ते हुए जब इन पंक्तियों  पे नज़र पड़ी तो मन में अचानक एक सवाल उठा कि इस धरती पे जन्म और मृत्यु का सिलसिला क्यों है ?क्यों हर युग में एक औरत का जन्म किसी-ना-किसी कामना पूर्ति के लिए हुआ है ? क्यों हर युग में सीता ,अहिल्या और द्रौपदी जैसी नारियों को ही हर कसौटी के लिए चुना गया ? क्यों पुरुष प्रधान समाज में नारी को ही  केन्द्र बिंदु की भांति सबके बीच ला खड़ा कर दिया जाता है ? ऐसे अनेक सवाल है जो आज मेरे मन में तूफ़ान मचा  रहे है और इनका उत्तर ही तो मेरी समझ में नहीं आ रहा |
उगता सूरज सुबह का ,प्राची ला हो गई पक्षियों के गाने फूट पड़े ,बंद कलियाँ खिलने लगी सब सुन्दर है !सब अपूर्व है ,फिर भी इस क्षण अगर मेरा मस्तिष्क आंदोलित हो उठे तो मैं क्या करूँ ,ऐसा क्यों हो रहा है | जहाँ हृदय के प्रश्न खत्म होते है वहाँ से अनुभव की यात्रा शुरू होती है और ये ही बात मैंने बहुत वक्त से महसूस कर रही हूँ कि युगों युगों से नारी अपने ही आसपास के पुरुषों से छली जा रही है ,युग कोई भी रहा हो नारी का जीवन कठिन था ,है और आने वाले वक्त में भी ऐसा ही कठिन रहेगा वक्त और युग कोई भी हो नारी के जीवन में कोई परिवर्तन  होने वाला नहीं है |

कहते  हैं कि अभिमन्यु-पुत्र परीक्षित का जिस दिन अभिषेक हुआ ,उसी दिन से कलयुग का प्रारंभ हुआ और आज इस कलयुग में जब सब कुछ धर्म के विपरीत हो रहा है तो हम कैसे इस बात को सोच सकते है कि आज के वक्त एक नारी का सम्पूर्ण सम्मान होता होगा, जबकि कवियों की कवितायों में औरत के रूप को उसके सौंदर्य को वर्णित करते है ,सुंदरी ,अप्सरा और  गजगामिनी जैसे शब्दों से आज का युग और आज के युग के लोगों औरत को आज भी भोग्या की नज़र से ही देखते है .मैं ये नहीं कहती कि हर आदमी,समाज गलत होता है पर आज भी नारी का जीवन कठपुतलियों जैसा है तो ये कोई अतिशयोक्तिपूर्ण बात नहीं होगी क्यों कि हम सब देखते और समझते है की उसे जाने अंजाने मनमानी  डोर से नचाया जाता है जो  अदृश्य हो कर भी उसके मन-मस्तिष्क को काबू किए रहती है .भले ही आज के समाज में ऐसी औरतो की तादाद बढ़ रही है जो अकेले रहना पसंद करती है ,पर फिर भी उसकी आत्मनिर्भरता किसी ना किस के संग बंधी होती है ,चाहें वो पिता हो ,भाई  या कोई ऐसा दोस्त जो उसके करीब हो क्यों कि वो पुरुष की भांति सर्वथा  आत्मनिर्भर नहीं होती इसलिय उसके भीतर के हर बड़े तूफ़ान बवंडर वो चाहें विचारों के हो ,वासनाओं के या उसी के शोर गुल के जो उसके भीतर चलते है कोई कहें या ना कहें वो अपने आप ही एक कठपुतली बन नाचने को मजबूर हो जाती है .अपने आप से लड़ना जितना मुश्किल है उतना ही आसान  संसार और उसकी बातों से भागना है ,खुद को हठयोगी साबित करने के चक्कर में कब वो अपना नुकसान कर जाती है ये उसे भी बहुत देर से पता चलता है .एक औरत के जीवन में पढ़ लिख जाने के बाद भी जब तकलीफ कम नहीं होती और उसी दुखो के चलते उसके जीवन की बदलियां घनी से घनी होती जाती जाती है तो उसका खड़ा पर से भी विश्वास डगमगाने लगता है |युगों से नारी को देवी का दर्ज़ा देकर उसके मन की इच्छायों को दबाने का जो सफल प्रयास किया गया वो आज भी कायम है ,अपने मन की करने से पहले अनेको अनेको प्रश्नों से घिरी नारी स्वतः  अपना जीवन जीना भूल जाती है पर मैं अपने मन की ये बात जरुर  कहूँगी कि औरत कोई देवी नहीं अपितु वो एक साधारण मानव के रूप में खुद को देखना अधिक पसंद करती है ताकि वो भी एक सुलभ सा जीवन जी सके अपने मन के पवित्र रिश्ते के साथ भले ही वो रिश्ता  पति-पत्नी का ,भाई बहन का ,पिता पुत्री का या फिर सखा-सखी का हो बिना किसी स्वार्थ ,बिना किसी ढकोंसले के .अंत में मैं अपनी बात रखने के लिए ये ही लिखना  अधिक उचित समझती हूँ कि इस पृथ्वी पर सब अपना-अपना जीवन जीने के लिए आए हैं तो उन्हें उनके हिस्से का जीवन जीने देना चाहिए |वहीँ दूसरी और दिनों दिन औरत के साथ बदसलूकी की घटनाएँ तेज़ी से बढ़ रही है | एक युग में सीता अपना दुःख ,लज्जा ,अपमान छुपाने के लिए धरती की गोद में चली गई ,तो सती ने अपनी आहुति अग्नि में दे दी ,द्रोपदी की वजह से महाभारत का युद्ध हुआ, ये लांछन लेकर वो कैसे अपने जीवन को जी पाई होगी?कहते है खाली दिमाग विचारों की जननी होती है और लिखने वाला तो वैसे ही बहुत सोचता है हो सकता है कि रसोई में काम  करते हुए या कॉफी बनाते हुए ,दूध के उबाल के साथ साथ मेरे विचार भी मेरे ही भीतर उबल रहे थे ,जिनका बाहर आना जरुरी था | एक तुलनात्मक सोच ने मेरे इस इस संग्रह को   जन्म दिया और ये संग्रह  किस कसौटी पे रखा जाएगा ये मैं भी नहीं जानती |ये संग्रह,मैं हर उस सखी को समर्पित करती हूँ जो, मन से सोचती और अपनी सपनों की उस सहेली को अपने भीतर महसूस करती है और जिसके अस्तित्व में ही स्त्री का सच्चा सृजन होता है| हर नारी सोचती तो बहुत कुछ है, पर किसी के साथ अपने विचार बाँट नहीं सकती,उन्ही विचारों की ये लेखनी समर्पित है, हर नारी मन को |
 
अंजु  (अनु)

Thursday, February 14, 2013

पुस्तकों का विमोचन

विश्व पुस्तक मेला ...दिल्ली में इन पुस्तकों का विमोचन हुआ (इंटरनेशनल बुक फेअर )


  ए-री-सखी,पगडंडियाँ और अरुणिमा का विमोचन के पल ...........
10.02.2013 को इसके लोकार्पण के अवसर पर वरिष्ठ कथाकार श्रीमति चित्रा मुदगल, श्री विजय किशोर मानव, कवि व पूर्व संपादक "कादंबनी", श्री बलराम, कथाकार व संपादक, लोकायत, श्री विजय राय, कवि व प्रधान संपादक, लमही एवं श्री ओम निश्चल, कवि-आलोचक पधारे ...
अरुणिमा के विमोचन के समय मंच पर ...राजीव तनेजा, सुनीता शानू ,सरस दरबारी जी मुकेश कुमार सिन्हा और डॉ महफूज़ अली ...साथ में शैलेश जी और मैं




 पगडंडियों के साथ ....हम सब साथ साथ हैं .....मुकेश जी, नीता जी ,गुरमीत जी ,गुंजन जी ,नीलू-नीलम जी ,रंजू भाटिया जी















रेखा श्रीवास्तव जी  और अनुपमा त्रिपाठी जी

और जिनकी हम कोई भी तस्वीर नहीं ले पाए वो हैं अरुणिमा के प्रतिभागी सूजन  कवि जी जो कुरुक्षेत्र से इस विमोचन का हिस्सा बनाने आए थे
अशोक अरोड़ा जी मेरठ से ,मीनाक्षी पन्त जी और सरिता भाटिया जी दिल्ली से
शाहनवाज़ जी ,रमेश सिरफिरा जी, दिनेशराय द्विवेदी जी ,महफूज़ अली  और खुशदीप  भैया साथ में हरी जपुरिया जी 

आधा सच से महेंद्र श्रीवास्तव जी और कमल जी
 मुंबई से नीता कोटेचा (साड़ी में ) और आगे नीरू नोएडा से


आनंद कुमार द्विवेदी जी ...और बाकि की मित्र मंडली ...इनके अतिरिक्त सुधांशु श्रीवास्तव ,अविनाश वाचस्पति जी और संतोष जी भी उपस्थित थे |
कुछ फुर्सत के पल 
हमारी मित्र मंडली के साथ एक कोने में खड़े अरुण शर्मा ''अनंत''

विश्व पुस्तक मेला ...दिल्ली के  कुछ यादगार पल ....
 एक बार फिर हिन्दी के किसी समारोह मे इतनी अधिक उपस्थिती देखी गई, पूरा हाल भरा हुआ था, उपस्थिती करीबन१२५  से १५०  लोगो की थी...बहुत से लोगों से मिलना हुआ कुछ याद रहें कुछ के नाम नहीं जानते ...फिर भी उनका दिल से आभार .....सभी दोस्तों का दिल से आभार जो हम लोगों की पुस्तकों के विमोचन के अवसर पर हम सब के साथ थे ...

आप  सब का दिल से आभार