Saturday, December 31, 2011

आने वाला नववर्ष सबके लिए मंगलमय हो ........................


आने वाला नववर्ष सबके लिए मंगलमय हो ........................

हर जाने वाला साल
इतिहास बन जाता हैं
हर आने वाला साल
वर्तमान में दाखिल हो जाता हैं
वक्त के आईने में
जब भी जाने वाले साल को देखा
तो -लगा
सबको विरासत में
मिले है ...कुछ सुख -दुःख
कुछ यादे कड़वी -मीठी सी
कुछ दोस्त -कुछ दुश्मन
और मिला है एक काफिला
जो संग अपने चलने को साथ
हो लिया ..अपना बन के
मन में ही बसेरा कर लिया |

है चाह सभी की
बादल धुंधले अँधेरे के
छट जाएँ जीवन से
नवभोर की उजली किरण -सी
आशा जग जाए जीवन में ,
आओ रे मेरे साथियों
मिल कर करे प्रवेश ,
नववर्ष में
एक बार फिर से देखे नए सिरे से
अपना बचपन और जवानी
लिखे रोज एक नयी कहानी
काहे की ये तनातनी ,
छोडो ये उदासी
मारो अपने ही अहम को
आओ नए साल में
शुभ संकल्पों को लेकर
हाथ थाम कर एक दूजे का
साथ चले फिर से मिलजुल कर ||

अनु


Thursday, December 29, 2011

मैं और मेरे कवि मन के घर आँगन में

इस १९ दिसंबर में मेरा ब्लॉग ...पूरे ३ साल का हो गया ....अपनी व्यवस्ता और कुछ बीमार होने की वजह से मैं ये पोस्ट पहले नहीं डाल सकी ...पर आज मन हुआ कि ...आप सबके साथ अपनी इस खुशी को साँझा करूँ ...नहीं जानती की आप सबको ये कैसा लगेगा ..पर ये लिखते वक्त मेरा मन खुश है ...यहाँ ब्लॉग की दुनिया में मैंने अपने ३ साल बहुत अच्छे से पूरे किये ...आप सबके बीच ...भले ही मेरी पहचान नई है ....पर मेरी खुद से और कविता से ..मेरे भावो को लिखने की ये पहचान बहुत पुरानी हैं ...मैं अनु आप सभी दोस्तों का दिल से आभार मानती हूँ कि मेरी कुछ नादानियों को नज़र अंदाज़ करके ...मेरी लेखनी को आप सबका आशीर्वाद वक्त वक्त पर मिलता रहा है .. अपनी लिखी नई कविता के साथ ...आप सबके सामने फिर से आई हूँ |



मैं और मेरे कवि मन के
घर आँगन में
हर दिन
नए भावों का सूरज
आता हैं
मेरे भीतर बैठा
मेरा कवि मन
मुझ से खूब बतियाता है
एकांत में ,भीड़ में
मुस्कुराते हुए
अपनापन जतलाता है
मैं उसे ,अपने मन की बाते
बतलाती हूँ
और वो शब्दों का साथ
मुझे दे जाता हैं
फिर भी मैं कितनी
बेबस हूँ -विवश हूँ
अपने ही बनाये
मक्कड़ जाल में फंस जाती हूँ
सामाजिक -पारिवारिक
संबंधो में ही उलझ कर
अपने ही भावो और शब्दों
से खुद को दूर करती चली जाती हूँ
पर
मेरा कवि मन सब जानता हैं
कि...इस यथार्थ को
उसे ऐसे ही अपनाना होगा
और मेरा साथ ऐसे ही
ता उम्र निभाना होगा
मैं और मेरा कवि मन ||

अनु

Thursday, December 22, 2011

मेरा भी एक कोना है ...


मेरा भी एक कोना हैं ....

यहाँ एक कोना मेरा भी हैं
टिक टिक के शोर में ,

धक-धक के जोर में ,

जब आप आएँगे ,
अनमने से मुस्करायेंगे,
फिर एक कोने में
दुबकी-सी ,
सुबकी-सी
सिमटी-सी ,
को आप सबके बीच ही पाएंगे |
मोनित सी रहती हूँ

ये अब आदत सी हो गई है
इस बिखरी सी दुनियां में
खुद में सिमटी सी
रहती हूँ
ऐसे में चुपचाप सुनती हूँ हर धड़कन ,
उस वक़्त की एक लड़ी बन जाती हूँ
और सब के बीच पसर जाती हूँ |

सिमटे से आँचल पर ,

बदली सी छा गई है
समय की चाल पर

जो हर दिन एक
नई
कहानी सुनाती हैं ..
हँसना कम..यहाँ ज्यादा रोना हैं,
इस अजीब से आलम में,
ऐसा भी होना हैं
सिमटी-सी सीमा में ,
खामोशी के रंग में
संवरा सलोना हैं ,
मेरा भी एक कोना है ||


अनु

Saturday, December 17, 2011

तवायफ़...................

नारी मन की पीढ़ा को कभी चलते हुए कहीं पढ़ा था ...उस वक़्त ये कविता बहुत अच्छी लगी थी ...इस लिए इसे संजो के रख लिया था ...आज फिर यूँ ही चलते चलते इस पर नज़र पड़ी....इस कविता के लेखक या लेखिका का नाम नहीं जानती ...फिर भी आप सबके साथ इसको साँझा कर रही हूँ ...........




तवायफ़...................

कुछ सवाल उठ रहे है मन में
किस को बुलाऊं इस सूनेपन में
सितारे भी तो नज़र
नहीं आते इस गगन में
लेकिन इस ख़ामोशी में भी
कोलाहहल सा हो रह है मन में.......
चुल्हे कम दिल
अक्सर जलते है यहाँ.कुछ सवाल उठ रहे है मन में
किस को बुलाऊं इस सूनेपन में
सितारे भी तो नज़र
नहीं आते इस गगन में
लेकिन इस ख़ामोशी में भी
कोलाहहल सा हो रह है मन
इठला कर चमक रही है बिजली
जैसे आग लगने वाली हो तन मन में..........
शराब के नशे में गिरते है
गिर कर कम ही संभलते है यहाँ
इस महखाने ने मुझे इतना बुरा बना दिया
मेरा नाम भी लेने से भी
लोग डरते है यहाँ………
किसी ने बजारू
किसी ने बिकाऊं कहा मुझे
कैसे गुजारुंगी अब मैं ये जिन्दगी
हर दिन सजना ,हर दिन संवरना
मगर किस के लिए
दिन में न चैन और रात भर जगना
मगर किस के लिए

खूब बजती है शेहनाई रात भर
सुबह उठती है अर्थी अरमा मरते है यहाँ………
अब मै भी जी जी कर
मरने लगी हूँ ||

Saturday, December 3, 2011

क्या करे अब ......अजीब सी दुविधा

आप सबसे सप्रेम निवेदन .......ये कविता किसी व्यक्ति विशेष को सोच कर नहीं लिखी गई ......ये एक सोच है ...जो दिल से कलम में उतर गई ....ये एक सरल कविता है...कविता जैसे ही इसे पढ़ा जाए .......आभार

क्या करे अब ......अजीब सी दुविधा

अजब गजब सी ये दुनिया देखी

अजब गजब के है मेरे समेत लोग यहाँ
अपनी कविता के वास्ते
मांगे हर कोई भीख ....
लो जी ...कविता ना हुई
हो गई आज़ादी देश की
जो सुभाष चन्द्र जी का नारा है

'' तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आज़ादी दूंगा ''
आज उसी तर्ज़ पर चल रहे
इस सारे ब्लोगर जगत के
नर और नारी..
तू मुझे दे
मै तुझे दूँ ...टिपण्णी
तभी तो होगा
बराबर का हिसाब किताब |

इस से अछूती नहीं अपनी
भी हस्ती ..
अपनी ही दर्द भारी कविता पर
''पर्यावरण को बचाना है ''

की .. ..टिप्पणी ने ..
एक बार चौका दिया
उस दिन लगा कि ये तो मायाजाल है
बेकार का फांसी का फन्दा है
जो इस में एक बार फंसा
वो फंसता ही चला गया
एक और नया टंटा निकल कर
सामने आया है ...
होंगी जितनी भी टिप्पणी
उसे ही विजय ताज पहनाया
जायेगा ....
देखो जी ..फिर से
फेसबुक ...और जी-मेल पर
मेरे समेत
सबकी भीख की

अर्जी लगी हुई है ...
किसको भीख दे और किसको नहीं
सभी ही की तो
लम्बी कतार है यहाँ
जिसको देंगे वो अपना हो जायेगा
जिसको नहीं देंगे
वो दुश्मन बन जायेगा
फिर कभी मुड़ कर मेरे
''ब्लॉग ''पर नहीं आएगा
उसको हम फूटी आँख
नहीं सुहायेंगे ...
अब बोलो हम
किस किस से दुश्मनी
करके इस ब्लॉग और ब्लोगर की दुनिया से
कहाँ जाएंगे


अनु

Tuesday, November 29, 2011

दोस्ती......


दोस्ती......

किताबे पढ़ी ,
मन का मंथन किया
खूब सोचा-समझा

और जांचा
ऐ-दोस्त तुझे ....
राहे-जिन्दगी में
ख़ुशी मिले ना मिले
सुकून जरुर मिले|

मैंने जन्नत तो नहीं देखी....पर,
चलते-फिरते हुए
तेरी
आँखों में सादगी देखीं
राह चलते भी
रिश्ते
बन जाया करते हैं
वहीँ रिश्ते मंजिल
तक जाते हैं ..
ऐ-दोस्त पर मैंने ..

तेरी दोस्ती की इन्तहां देखी |


आदमी ही आदमी का
दुश्मन हैं यहाँ
मत पुछिए...कि
इस दिल की
आरजू हैं ये कि ..
हाथ उठा कर ,
अल्लाह से सिर्फ प्यार
नहीं माँगा करते
दोस्ती के लिए भी मैंने ,
फ़रियाद मंज़ूर होते देखी |


आँखों से तूफ़ान उठाया
जा सकता हैं
चुप रह कर उसे
फिर से दिल में
छिपाया जा सकता हैं
फिर भी दोस्ती की मशाल
हर मौसम में जलती देखी |


अब बस एक ही
आरजू है मेरी कि ...
मेरी हर दुआ
तुझे छू कर गुज़रे
ये ही तम्मना हर बार
दिल में मचलती देखी ||

अनु....

Sunday, November 20, 2011


क्यों मौन है ये ताश के पत्ते सी घर की चारदीवारी

आँख खुली तो अन्याय को
तांडव करते हुए पाया
अवतरण के वक़्त मुसीबतों ने ही
अमंगल गीत था गाया
अन्याय का दर्द भोग रही
हर श्वांस
पल पल कसता
मुसीबतों का घेरा सा |

हर किसी की एक नई जिन्दगी जो
जो शुरू होती है ....ब्याहा से ,
हर किसी को रास नहीं आती है ..
वे शादियाँ जिन में
खटास चुकी है
वे झगड़ते हुए दम्पति
क्यों नहीं ....खुद को एक बार
मौका देते ...
क्यूँ लम्हा -लम्हा सुलग रहे
खुद के ही भीतर वो
क्यों नहीं अपनी कहानियों
का अंत कर देते
क्यों नहीं उनकी तनी
हुई भवें ...झुक जाती |

स्वमं को मानव कहने वाले
क्यूँ झगड़ते है जानवर सामान
एक जंगली मानसिकता
जिसके है वो दोनों ही
शिकार
कोई कानून नहीं,
ना ही कोई व्यवस्था
जिसका करना है पालन उनको
उनके घर छाया
सर्वत्र जंगलराज

मेरा सिर्फ उनसे इतना है कहना
हर वो वैवाहिक ...
जो झगड़ते है
कृपया ..कृपया
अपनी अपनी असहमति
से सहमत हो जाये
अपने वाणों के
चाकू ,अपने काँटें...
अपनी नकली हँसीं..
लेकर ...नकली आंसूं
ना बहाएँ
क्यों कि प्रेम के
मुहाने पर
अभी
तक आंसुओ के लिए जगह है
लेकिन रिश्तो के अस्त होने पर
आप लोग ....खुद को
घायल करने या काट खाने के लिए
अपने कटु बाणों के
तीर लिए
बिस्तर पर ना जाए |

क्यूँ कि-शब्दों के प्रहार से
घायल है उनके अपनों
की ही जिंदगियां
वो लोग देखे और बतलाये कि
क्यों ..मौन है ये ताश के पत्ते
सी घर की चारदीवारी
क्यों अधूरी है उनकी जिन्दगियाँ
अपनों के बिना ?

अनु

Friday, November 11, 2011

एक अबोध बचपन


एक अबोध बचपन

एक धीमा बचपन
जो खुद में ढूंढता है
एक मासूम बच्चा
जिसका कोई उत्तर नहीं ...
मन का वो बच्चा जो
भागता है ,
नदी के बहाव के साथ साथ
कहीं दूर तक
बिन सोचे कि
ये कौन दिशा जाएगी
और वो दौड़ता
चला गया
साइकिल के पीछे
अपने कदमो की
गति के साथ
बिन अपने कदमो की
मिथ्या को पहचाने .....

बच्चे का मुखौटा बदला
उसने अपने 'स्व ' से
खिसकना बंद किया
ढांचा स्थिर हुआ
अचानक उसके चेहरे से
एक अजनबी चेहरा
प्रगट हुआ ...
जो क्रूर था ..अपनों
और गैरों के लिए
कुछ कठोर ,कुछ निर्दयी
कुछ अनजान ,कुछ परेशान सा
अपने ही वक़्त से
उसके मन का सरोवर
उसका ही कठोर ,
छिपा हुआ जलपुंज उसका
अपने ही
दर्प से जल रहा था
...

बच्चे का मुखौटा
फिर से बदला
वो अपने 'स्व 'के साथ
फिर से स्थिर हुआ
नयनो में अब मौन
की भाषा थी ....
आहट ,जर्जर ह्रदय था
उसने जीवन में ..
तब उसने
संतोष पाने का संकल्प किया
जब अपनों ने भी साथ छोड़ दिया
किसने उसे सुना ?
किस आवाज़ ने उसका उत्तर दिया ?
वो चीखा ...और किसी को
इसका पता नहीं चला ..
अकेलपन का भयानक चक्र
जब ऊपर उठा
तब....उसकी वापिसी हुई
एक अबोध बचपन
जो खुद में ढूंढता है
एक मासूम बच्चा
हमेशा ही अपने भीतर
एक अबोध बचपन .......


अनु ...

अनु

Sunday, November 6, 2011

एक प्यास मेरी भी


एक प्यास मेरी भी

रोज़ सुलगती इन आगों में ,एक आग मेरी भी है
रोज़ दहकती इन रातों में ,एक रात मेरी भी है||

रोज़ पीड़ित मन की आहों में ,एक आह मेरी भी है
रोज़ सागर के चक्रवातो में ,एक मंथन मेरा भी है ||

रोज़ महकती इन सांसों में ,एक सांस मेरी भी है
रोज़ मचलती इन रातों में ,एक रात मेरी भी है||

रोज़ थिरकती इन गुंजों में ,एक गूंज मेरी भी है
रोज़ चहकती इन बातों में ,एक बात मेरी भी है||

रोज़ छलकती इन बूंदों में ,एक बूंद मेरी भी है
रोज़ तड़पती इन प्यासों में ,एक प्यास मेरी भी है ||
अनु

Thursday, October 20, 2011


मैं और मेरे गीत

तिमिर के उस पार
जाना चाहती हूँ
एक नया गीत
लिखना चाहती हूँ
मैं और मेरे गीत
खुद को पढूं और
खुद को लिखूं
मेरे बाद इसे
पढना हैं किसने
कागज़ और कलम
के ज़रिये ...
मैं और मेरे गीत

गीत सूर्य का हो

या हो नदी का ..
दूर तक ...
पर्वत के आर पार
शब्द भी बोलते से हो
जीवन में कुछ धीमी सी
गति से बढते से हों
किसी किसी की
किस्मत में होता हैं
अपने खुद के गीत
बना के उनमे
खुद को जीना और
उस में ही मर जाना
मैं और मेरे गीत.....

गीत में मेरे शब्द
सौन्दर्य प्रतिमा ..
साथ में नग्नता का भान
देते हुए से
गीतों के चमत्कारी शब्द
जयकार पा जाते
पर चुभ जाते है कभी
कांटो से भी ज्यादा ...
इन में भी हैं मानमर्यादा
के सारे बंधन
पर तोड़ कर मैं इनको .....
इन सबसे दूर
असर के उस पार
उड़ जाना चाहती हूँ
मैं और मेरे गीत ........

सूखे बिस्तर सी
चादर से गीत
भागती जिन्दगी ,
फूलो की महक ,
दर्द तो कभी ,
तपती धूप
तो कभी इस भूखे पेट
की आवाज़
कहीं ..पिया प्यार
तो कहीं प्रणय दुलार
की चहकन..
तो कहीं गुस्से में
झटक देते और
कहीं दुआ देते
मैं और मेरे गीत ......
अनु

Friday, October 7, 2011


एक ग़ज़ल .....

खुद को खोया भी नहीं,तुमको पाया भी नहीं कभी
फिर साथ तुम्हारा ,अब कैसे मेरा अपना होगा ||

हमने हर गम से निखारी है यादे ,दिनो दिन तुम्हारी ,
तू ही बता कि ,मेरी बगावत का आखिरी रास्ता क्या होगा ||

तुमको पाते तो उसी मदहोशी में ,हम फ़ना हो जाते ....
हम नजदीकी से भी डरते रहे और ,दूरी भी ना बना पाए कभी ||

लोग कहते है कि ,पल भर में होगा सवेरा होगा अभी

पर सूरज को भी तो काली घटायों ने, घेरा होगा कभी ||

सुबह
की शिखायों पर ,उतरती है उषा की लाली
कौन जाने की ये लाली, अनिष्ट है मेरी किस्मत की||


घेरा हुआ है कुदरत के तूफानों ने, इस संसार को

कौन जाने की कभी मेरा भी कोई नया ,सवेरा भी होगा||

क्या मुमकिन है की तूफ़ान के ,दब जाने पर भी ,
मेरा इश्क भी एक नये रूप में, मेरा ही होगा ????

अनु...

Sunday, September 25, 2011

कुछ दिल की बातें


कुछ दिल की बातें

दिल की गहराइयों में इतना दर्द सा क्यूँ है
बेबसी ,बेताबी और बेचैनी का आलम क्यूँ है ||

अपना सा हर शख्स ,परछाईं सा पराया क्यूँ है
जिसको भी माना अपना,वही इतना बेगाना सा क्यूँ है ||


इस दुनिया की रीत में इतनी ,तपिश सी क्यूँ है|
हर कोई अपने ही वास्ते ,इस रिश्ते को जीता क्यूँ है ||

आज हर घर में रिश्तो का गुलशन सा ,क्यूँ नहीं है
जो बांध सके सबको गुलदस्ते में,वो माली क्यूँ नहीं है ||

अपने घर के आँगन में मांगी थी ,धूप छावं जीवन की
पर हर कोई बाहर की आँधियों से , लिपटा सा क्यूँ है ||

जिन राहों पर बिछने थे ,गुलशन के फूल कलियाँ
उन राहों से चुन चुन के कांटे ,मै हटा रही क्यूँ हूँ ||

मुश्किल से मैंने खुद को ,मुश्किल से निकला था
आगे की मुश्किलों से .मै दामन बचा रही सी क्यूँ हूँ ||

अनु

अनु

Monday, September 5, 2011

ऊँची उड़ान


ऊँची उड़ान




एक ऊँची उड़ान
बादलों का शहर
उन पर ठहरा सा प्रतीत
होता ,मेरी कल्पना का जहान
मुस्कुराते ,चिढाते ...
कुछ आँखों से अठखेली
करते ये बादल ..
यहाँ सांसे भी चलती है
कुछ बाते मेरे
दिलो-दिमाग में भी बसती है
पर हर वक़्त
लबों के दरमियान
खामोशियाँ ही क्यूँ बसती है ?


क्या बताएँ उसको और क्या
छुपाएँ उस से कि ...
एक ही नज़र में ले ली तलाशी
उसने मेरे दिलो दिमाग की ....
जहाँ मन है खोया खोया
और तन की भाषा भी
बदली बदली सी है ....
इस खुले आसमान में
रात भी जगी जगी सी है ....

जब तुमको देखा तो
बरसो की साध पल में
मुस्कान में बदल गई ...
सुनो अगर मेरे दिल की
धड़कन तो ...
सांसो में बसी आवाज़ हो तुम
तुम हो बर्फ
हम हैं पानी
अपने अपने देश की
हम है कहानी....
माना कि
दूर हो तुम
तो पास हम भी नहीं हैं ....
फिर भी अपने अपने
प्यार के खुमार मे डूबे हुए से हम हैं ||

अनु


Sunday, August 28, 2011

हम दोनों के बीच


हम दोनों के बीच

भागीरथ बन कर
भिगो गया कोई
खुद के बोल देकर
गुनगुनाने को छोड़ गया कोई.
प्रेम रस की फुहारों से
इस तन की प्यास
बुझा गया कोई.

अठखेली करती चंचल मन
सीमाओं में बंधी-कसी ...
मन के तारों को

झुंझना गया कोई

चले हैं मिल कर साथ
छूने को आसमां
अतृप्त आह, आहें कई .. ...
अब भी है
हम दोनों के बीच.

प्यासी धरती के दिल में
प्यार बीज बो गया कोई.

रीझ रीझ के नाचा है मन मयूर
उसकी प्रेम फुहारों में

मरू की नीरसता टूटी है
मन मंदिर के द्वारे में

तन से नाच ..नचा
गया कोई.

कान, कान वो ही
जिसने तेरी आवाज़ सुनी
आँख, वो आँख वही
जिसने तेरा जलवा देखा
इन्ही सुर्ख नयनो में
सपना सजा गया कोई.

भीच लूँ तुझे अपनी
बाहों में
प्यासे थल, जल की
आशा में
एक स्वप्न अब भी बाकी है
हम दोनों के बीच
लो सपने सजा गया कोइ ||

(अनु )


Wednesday, August 24, 2011

इंतज़ार


इंतज़ार


भीगे भीगे है ज़ज्बात जिन्दगी के भीगी सी आँखे ये उन यादो से
थोड़े पास ,थोड़े दूर है
ना कुछ कहने दे
ना चुप रहने दे
दिल की टीस रही
ये यादे ...
ना हँसने दे
ना रोने दे .....
रूपकों को रूप की ही
नज़र ना लग जाय
खोज में जो भी मिले,
या ना मिले,
पर मिल जाए उस से ये मन......
सब एक सा हो, या नहीं हो,
पर हो उस में तनिक दीवानापन,....
फिर क्यूँ ....
बेरुखी उनकी ना सोने दे
ना जागने दे ....
रात के सफ़र में
यूँ ही अकेले चले थे हम
बनके तूफ़ान अपने मन का ....
नहीं मालूम था कि
आशियाँ भी नसीब होगा की नहीं ?????
वक़्त से कुछ न
कहा मैंने ...
वो आया और लौट भी गया
उसके रास्तो को भी कहाँ
रोका था मैंने?
दिन निकले और ढल गए
रातें भी ख़ामोशी से आयी
और चुपचाप चली गयी
चाँद ने भी मुझसे कुछ कहा नहीं
वो भी रात भर आँख बचाकर
चमकता रहा.....
एक तुम क्या मिले मुझे
दुनिया बदल गयी मेरी
लेकिन मैं तब से अकेली उसी
जगह खड़ीं हूँ ...
जहाँ तुम मुझे छोड़ गए थे
इस इंतज़ार में कि शायद
कभी किसी बहाने से तुम लौट आओ ?????

(अनु )

Tuesday, August 16, 2011

ये जिंदगी भी ,रहस्य है

चित्र आभार .....रोज़ी सचदेवा

ये जिंदगी भी ,रहस्य है




मन की बेचैनी
घुटन है मन में
सच बोलने की ताकत
आते ही
चुप करवा दिया जाता है
ऐसा क्यूँ होता है
मै समझी नहीं आज तक
सच सुन कर हर कोई
क्यूँ दूर हो जाता है
सच अगर इतना ही कड़वा है
तो फिर ...कोई क्यूँ
किस उम्मीद से करीब आता है
किसको अपना समझे
किसको बेगाना
अपने भी सच के सामने
बेगाने नज़र आते है

कुछ आते है उग
कुछ उगाती हूँ मैं
हर शाम
दर्द की फसल उगाती हूँ मैं

खुद को तराशती हूँ मैं
जर्रा जर्रा कतरा` कतरा
ये जिंदगी भी ,रहस्य है
मेरे लिए
मन को उधेड़ती हुई

कहाँ जा रही हूँ..

(अनु )

Wednesday, August 10, 2011

जाते हुए सावन को सलाम ......

वर्षाऋतु........

हमने बादलो को घिरते देखा है
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल महीन कणों को,
खुद पर गिरते देखा है,
ऊँचे हिमालय के कंधों पर
उभर आया वो सतरंगी
इन्द्रधनुष भी ...
वर्षाऋतु के आने पर
हमने बादल से उसे
निकलते देखा है......

वो थी वर्षाऋतु की सुप्रभात
मंद-मंद थी ठंडी हवा का बहाव
मद्धम मद्धम थी किरणे
सूरज की....काले बदलो में
खेलती सी
एक दूसरे से करते वो
अठखेली थे
अलग-अलग रहकर ही जिनको
साथ निभाना था....
हमने बादल को भी
खेलते देखा है......

तेज़ बारिश की सुबह
चारो ओर था पानी ही पानी
वर्षा ऋतु के आगमन पर
छा गई हरियाली ...
खिल उठा बगीचे का हर फूल
पंछियों की आवाजों से गूंज
उठा ये आकाश सारा
हमने बादल को आज
फिर बरसते देखा है.....

ठहरे पानी में बच्चों की
तैर उठी कागज़ की कश्ती
मस्तानी सी
उनके नन्हे पावँ
पानी में छप छप करते
ये दृश्य बड़ा सुहाना था
बरस पड़ेगी कभी भी
ये काली सी बदली...जिसको हमने
गरज-गरज भिड़ते
अभी अभी देखा है,

हमने
बादल को
फिर से घिरते देखा है....


(अनु )

Monday, August 8, 2011

भविष्य की रिर्हसल ........


भविष्य की रिर्हसल ..........( रियलिटी शो के ड्रामे .... पर आधारित एक रचना )
आओ हम सब
करे भविष्य की रिर्हसल ....
एक से एक बढ कर
इठलाती ,बलखाती लडकियाँ
रियलिटी शो की ......शोभा बढाती
आयो आज के बेटो की माँ....
एक रियलिटी शो...से खुद के लिए
एक अदद बहू चुन ले
अभी से कर ले हम भी
कल की बुकिंग
पता नहीं कल कोई
बहू मिले या ना मिले
रह ना जाये ...हमारे पूत कुंवारे
होने वाली बहू की डिलिवरी
भले ही ७ साल के बाद मिले ...
इसे एक नई और
अच्छी शुरुआत कहे
या
बिडंबनाओं का मायाजाल...
करना है अब हमें
नए यथार्थ से सामना
सनसनी खेज़ खुलासे के साथ
अब है रियलिटी शो का ज़माना
डांस हो या फेमिली ड्रामा
बच्चे पालना हो या ...
बिग बॉस का वाहियात ड्रामा
या हो बहू की खोज करवाना ......
सब यहाँ सजा के परोसा जाता
अगर हो गालीगलौच बच्चो को सिखाना
तो खोलो टी.वी और
देखो ये रियलिटी शो का ड्रामा

(अनु)

Friday, August 5, 2011

२१वीं सदी के रिश्ते....


२१वीं सदी के रिश्ते.....(एकल होते परिवारों का दुःख.......जो मैंने समझा है ....मेरे विचार ...मेरी कविता )



आज के मशीनी युग में
समय कुछ ज्यादा ही
महंगा हो गया है
आप सब अब
अवकाश निकालो
आप लोगो से दो
बाते हैं करनी ..कि
सोया है सबका विश्वास
उसे तो जगा लो ...क्यूँकि
आज रिश्तो की पहचान
कठिन सी हो गयी है......
हर रिश्ते में सिर्फ
प्यार की
iv> कमी सी हो गयी है....
माँ बाप और संतान का
रिश्ता सिर्फ पालन पोषण
और नसीहतो तक ही
सिमट कर रह गया है.....
क्या किया उन्होंने
संतान के लिए ?
ये प्रश्न उनके दिमाग में
प्रेत बन कर बैठ गया है
कुछ नहीं ????
सिर्फ
अपना फ़र्ज ही तो
निभाया है.....
बदले में कुछ चाहने
का उन्हें हक नहीं.....क्यूंकि,
बच्चो की अब
तो अपनी ही जिन्दगी
हो गई हैं ....... और
पति पत्नी का रिश्ता
भी तो सिर्फ
तनख्वाह दिन तक का
ही रह गया है......क्यूंकि
दोनों की अब अपनी अपनी
निजी जिन्दगी है भाई...
अजब सी दुनिया है ये ...
दिल में है क्या ..ना जाने कोई ....
क्यूँ ...आज पोते पोतिया,
दादा दादी को नहीं जानते.....
वो इस रिश्ते को नहीं पहचानते......
क्यूंकि ......बूढे माँ बाप
घर की शोभा बिगाड़ते है....
और उनकी आज़ादी में खलल डालते हैं
इस लिए वो लोग तो
वृद्धाश्रम में ही भाते है........
देखो तो ...भाई -भाई जान के
दुश्मन बन बैठे हैं ...
रिश्तो की मिठास की कमी
को अब स्वीट डिश
जो पूरा करती है.....
टूटे हुए रिश्तो का
आज दौलत से एक
अटूट रिश्ता जुड़ गया है......
फिर भी मैं ...ये ही कहूँगी कि .....
ढूंढ़ सकते हो तो ढूंढ़ लाओ
वो स्वयं के रिश्ते जो खो गए
है इस दुनिया के चलन में
वो पक्के धागों से रिश्ते ....
वो रिश्तो की सच्ची मिठास......
वो प्यार, वो बंधन...
वो हर चेहरे पर मुस्कान
वो हँसीं-ठिठोली का वातावरण
वो अपनों पर विश्वास
जो मिलता था सबको
एक .... संयुक्त परिवार में ....
((अनु))

Tuesday, August 2, 2011

हे -गौतम बुद्ध..

(यहाँ आने वाले हर किसी पाठक से प्राथर्ना है कि ..कविता किसी के भी विचारों और भावनायों को आहत करने के लिए नहीं लिखी गई है ...इस कविता को सिर्फ सिर्फ कविता के तौर पर ही पढ़ा जाए )


कभी कभी मै सोचती हूँ
आशा के दीप जलाए
तुम्हे ढूंढ़ रही हूँ

हे -गौतम बुद्ध
तुम ...एक भाव
जरुर हो ....
पर पूर्ण कविता नहीं
अपनी ही कैद से भागे
खुले आसमान के नीचे
क्या मिला वहाँ
विचार,एहसास ..अनुभव...
ज्ञान भी ...बाँट लेने को
मानती हूँ मिला होगा
बहुत कुछ .....
पर ज्ञान वो नहीं जो
जो तुमने
किताबो में लिख दिया
और हमने पढ़ लिया ||

जन्म लिया था..
तो
कम से कम उसे
भोगते तो
देखते ...
कितने उतार चड़ाव
है इस जीवन में
जीवन वो नहीं
जो तुमने जिया

एक पेड़ के नीचे .....
जीवन वो है
जो एक औरत जीती है
अपने परिवार के लिए
माँ,बहन,बेटी और पत्नी
बन के ...
जीवन वो है जो
एक भाई जीता है
अपनी बहनों के लिए
उनके सामने एक आदर्श
रखने के लिए
कर देता है खुद की
इच्छायों का बलिदान
एक परिवार को
उनकी ख़ुशी देने
के लिए
जीवन वो है
जहां चार बाते हो
कुछ झगडा
कुछ प्यार हो
पति पत्नी में
मान- मुनहार हो
तकरार हो
जहाँ ..
इधर उधर की
कह लेने से
मन का गुबार
निकल जाता है
जैसे तैसे
हँसते-खेलते
लड़ते-झगड़ते
ये समय भी
खूब गुज़र जाता है

हे -गौतम बुद्ध
अफ़सोस है मुझे
की एक मिले जीवन को
तुमने यूँ ही
व्यर्थ गँवा दिया
देखे नहीं जीवन के सभी रंग
और ज्ञान के शब्दों में
संसार को बहा दिया
(अनु)

Friday, July 29, 2011

एक राजकुमारी ...............(सबकी एक कहानी )


एक राजकुमारी

मै अमर नाथ...उम्र ७८ साल ...
आज अचानक मेरी कार के सामने एक औरत ( देखने के बाद लड़की तो नहीं कह सकता ) गई ...अगर वक़्त पर ड्राईवर ने ब्रेक ना लगाईं होती तो उसे कुछ भी हो सकता था .....मैंने कार से उतर के आस पास देखा ...मुझे कोई नज़ार नहीं आया...पास खड़े लोगो से पूछा तो सबने ''ना '' कहा की कोई नहीं जानता उसे....ड्राईवर की मदद से मैंने उसे कार की पिछली सीट पर लिटा दिया और मै खुद आगे ड्राईवर के साथ बैठ गया...और गाड़ी को घर की ओर मोड़ दिया | घर आते ही मैंने जोर जोर से सावित्री ...सावित्री आवाज़े मारनी शुरू कर दी ....सावित्री ..मेरी पत्नी ....जो कुछ दिन से बीमार थी ...और उसकी की दवा लेके मै घर रहा था ...तो ये हादसा हो गया ...मेरी आवाज़ सुन सावित्री ...बाहर गई ...और आते ही बोली ..''क्यों घर आते ही इस तरह शोर मचा देते हो ....अब आप दादा ...नाना बन चुके हो ...कभी तो घर में आराम से दाखिल हुआ करो ''........
''लो कर लो बात...मेरी बात सुनी नहीं और तुम शुरू हो गई हो ...पहले देख तो लो की हुआ क्या है फिर बोलना '' और मैंने इशारे से उसे कार के पास बुलाया ...वह पिछली सीट पर उस औरत को देख कर चौंक गई .....''हाय ...किसे उठा लाये ...जब देखो सड़क की हर मुसीबत को घर लेके चले आते हो ...पता नहीं कौन ..किस की जनी है ??किस की बीवी ..किसकी माँ ...कोई अता पता है क्या इस मुई का....देखो तो लाडली कैसे आराम से सो रही है ....बाप की कार है ना ......'' ये तो जब शुरू होती है तो बंद ही नहीं होती....सावित्री बड़ बड़ करती रही ..और मै उसको ड्राईवर की मदद से उठा का बच्चों के कमरे में ले आया ...|खेर कुछ देर देखा पर उसे होश नहीं आया ....मैंने फटाफट डाक्टर को फोन किया ...वो कार देख कर दवा देकर चला गया ....|
उसे
होश तो आया ...पर वो अपना नाम नहीं बता पाई ....हम दोनों का प्रयास जारी था की किसी तरह उसकी पहचान हमहे पता चल जाये...पर हम असफल रहे ..जब भी उसे देखते तो ऐसा लगता की कोई मासूम सी बच्ची ..जो अभी अभी बचपन छोड़ किशोरी हो रही है ...हर किसी के साथ घुल मिल जाना ...सबसे बाते करना ....किसी को भी पकड़ के उसके साथ कभी लुक्का छिपी ....कभी ताश.....तो कभी भी लूडो खलने बैठ जाती और खूब हसंती ....और सबको अपने साथ बच्चा बना के ही दाम लेती ....मेरे सुने घर में जैसे बहार सी गई ..सावित्री का अकेलापन कैसे दूर हो गया पता भी नहीं चला ...बीबी मेरी थी ..पर तारीफ हर वक़्त उस अनजान की करती थी..
और
मैंने देखा..की सावित्री ने उसका नाम भी रख दिया था...गुडिया...हां जी गुडिया ....थी भी वैसे ही...हर हरकत बच्चों जैसी ...लगता ही नहीं था की ये कोई ४०...४२ साल की औरत होगी ....उसका अपना कोई सामान उसके पास नहीं था ..वो मुझे पहले भी खाली हाथ ही मिली थी ...ऐसे कैसे पता चलता कि वो कौन है ....पर दिन प्रति दिन वो हम लोगो की बनती जा रही थी ...
कभी
कभी ऐसे चुप कर जाती थी जैसे किसी बहुत गहरी सोच में बैठ का अपने मन का मंथन कर रही हो..और दूसरे ही पल ..फिर वही बचपन ...बातूनी इतनी की ..कभी कभी मुझे बोलना पड़ता की .......गुडिया चुप हो जा बेटू...बाबा के सर में दर्द हो गया ....तो भाग का अम्मा....अम्मा चिल्लाती और अपनी अम्मा से मेरे लिए तेल लेके आती ....और गाना गाती .......
सर
दर्द बाबा का
मालिश
करूँ ....दबा दूँ
इतना की
बाबा को नींद जाये
बाबा सपनो में खो जाये
फिर एक परी
आएगी ..
बाबा की गोद में
समाएगी ...
बाबा करे उसे
प्यार .........
और फिर जोर से चिल्लाने लगती .......तेल मालिश ...तेल मालिश .......और जोर से हँसने लगती ......वो पहेली बनती जा रही थी ....हम दोनों के लिए ...उसके व्यवहार में मैंने एक बात और देखी की वो अपने हम उम्र के आदमी को देख मेरे पीछे छिप जाती थी ...जैसे वो उसे कटने दौड़ा हो या भाग का अंदर अपनी अम्मा के पास चली जाती ....घर कर हर काम करती ...भागती फिरती घर भर में ....सबका मन लगा हुआ था उस के साथ |आज गुडिय को मेरे घर आये दिन हो गए थे ... आज मेरा जन्मदिन था ..और मै जानता था की मेरे दोनों बेटे आज घर जरुर आएँगे ....वो कहीं भी रहें...आज के दिन घर आते ही है ...मै जैसे ही अपने नित्य कार्यक्रम से निपट का अपने कमरे से बहार आया ...तो देखा गुडिया ....अपने ही बाग़ के फूलो का एक गुलदस्ता लिए मेरी और बड़ी रही थी ...और आते ही बोली ...बाबा.....जन्मदिन मुबारक हो ...मै हैरान रह गया की इसे कैसे पता ....मै कुछ पूछ पाता वो बोली ....आज पापा की याद गई ...आज उनका जन्मदिन होता है ...तो सोचा आपको मुबारक दूंगी तो ऐसा लगेगा की मेरी शुभकामनाएं मेरे पापा को मिल गई ...और अपनी गीली आँखे लिय वो मेरे सामने से हट गई ....और मै सोचता रहा....कि ये सब क्या है...सोची समझी साजिश या उसका भोलापन ......इस से पहले मै उस से कुछ पूछता ..अंदर से उसका शोर और बाहर....बच्चों की गाडी कर रुकी ....वो बात वैसी ही रह गई ...सबसे मिलने जुलने में ही वक़्त बीत गया....मेरे पोते पोतियों में गुडिया ऐसे मस्त हो गई जैसे उसके अपने बच्चे हों ...|
पूरा
घर बच्चों की आवाजों से गूंज उठा ...आज मेरा सूना चार दिवारी का मकान ....घर बन गया था ...मेरे साथ साथ सावित्री भी बहुत खुश थी ...तभी बडे बेटे ने गुडिया के बारे में पूछा ...तो उसको भी मै कुछ नहीं बता पाया ..बस इतना ही कहा की हो सके तो अपनी बहन मान लो .....मै नहीं जानता की कौन है ..कहाँ से आई है ..
पर
जब कार के आगे आई थी तो लगा था जैसे किसी अच्छे घर की बेटी या बहू है ...और मेरी आँखे भीग गई ये बात करते करते ...मैंने देखा..की विजय (मेरा बड़ा बेटा ) बहुत ध्यान से गुडिया को देख रहा है ...वो बोला ''पापा मुझे लगता है इसको मैंने पहले भी कहीं देखा है ''...उसकी बात सुन कर मुझे बिजली से भी तेज झटका लगा ...आँखे खुली रही और आवाज़ कहीं खो सी गई ....बहुत हिम्मत करके मैंने उस से कहा '''कहाँ देखा ..बोल बच्चे....इस नादान का है कोई ....वो भी इसके लिए परेशान होगा ....बोल ना बेटा...कौन है ये ...हम तो बहुत कोशिश कर चुके....थाने में भी रिपोर्ट करवा दी है...आज दिन से किसी का कोई फोन नहीं ..इसका कोई आता पता नहीं ...''
''पापा ...पापा प्लीस आप शांत बैठो ....मुझे सोचने दो ....अभी कुछ दिन पहले ही तो ..???????''
'' हां पापा ...याद आया....मै और कपिल एक मीटिंग के लिए हरिद्वार गए थे ....वहां ये उसी कंपनी की तरफ से आई हुई थी जिन से हमारी मीटिंग थी ....बहुत अच्छे से बात की थी ...इसने हम सबका बहुत अच्छे से स्वागत भी किया था .....और आप जानते है... ...ये कविता भी लिखती है.....सबका स्वागत कविता से इसने ही किया था ...हम सबके ओनर में .... दिन की मीटिंग के बाद हम सब गए ....पर ये यहाँ कैसे ...ये मै भी नहीं समझा ''....''आप रुको ....मै कपिल को यहाँ बुलाता हूँ ...शायद वो हमारी कोई मदद कर सके ...'' और कुछ ही देर में कपिल भी हम सबके साथ था....ओह ...हां ........कपिल ...विजय का जिगरी यार .....बेस्ट फ्रेंड ...वो भी चहकता हुआ मेरे घर में प्रवेश हुआ .......और गुडिया को देखते ही ......उफ़ ...उस वक़्त उसकी शक्ल जो मैंने देखी...जो मैंने समझा...बहुत हद तक बात मेरी समझ में गई थी....कपिल की नज़रे बहुत कुछ बता रही थी...और गुडिया....कपिल को देखते ही चिल्लाने लगी ...और कुछ देर में चिल्लाते हुए बेहोश हो गई .....|
विजय
ने कपिल को अलग कमर में किया और दरवाज़ा बंद करके ...जो बाते की ...वो हम सबको चौकाने वाली थी ....सारी कहानी....इसके .... छिपे पात्र ..और गुडिया की ये दशा मेरे सामने ...एक चलचित्र की तरह साफ़ थी ......ऐसा लगा की मेरी खुद की बेटी की ये दशा मेरे किसी अपने ने की है .....इतना दुःख मुझे....मुझे अपने किसी करीबी के मरने का नहीं हुआ था....जो आज मुझे कपिल की बातो से सच जान कर हुआ.......|
कपिल
तो सर झुका के माफ़ी मांग कर चला गया...अब सच जान कर मै क्या करूँ....कैसे करूँ....दिमाग को जैसे लकवा मार गया......बच्चों के शोर से मुझे होश आया...
तब ये ही सोचा की जो बात कपिल ने बताई ...वो विजय और मेरे बीच ही रहेगी ...इस घर में और गुडिया के घर में इस बात को कोई नहीं जान पाएगा ....विजय को बहन की इज्ज़त का वास्ता देकर ...चुप रहने का वादा लिया .......और अपनी गुडिया के घर फोन किया .....|
गुडिया
के पति को आने में घंटे लगे ..और ये वक़्त मेरे लिए ऐसा था जैसे मेरे सामने मौत का खेल चल रहा है ..और मुझे ये भी नहीं पता की मै बचूंगा की नहीं ....|
आने वाला इंसान....अच्छे घर का लगा...बड़ी गाड़ी....सलीकेदार ड्राईवर ....और खुद भी महंगे कपडे ...कुल मिला के वो शख्स अमीर लगा ....आते ही मेरे पैर छुए ...और बोला...''अमरनाथ जी आप ही है ना......आपने ही मुझे फोन किया था ......मै..अनिल कुमार....नीरू का पति ''....हां नीरू ..(मेरी गुडिया का असली नाम )..''.और ये मेरी बेटी दिव्या...और बेटा दानेश ..कहाँ है नीरू ... दिन का बोलके गई थी ...की ऑफिस के काम से जा रही हूँ ...पर ऑफिस से पता किया तो वो बोले अभी और दिन लगेगे ....और आज एक दाम से आपका फोन गया ....सब ठीक तो है...''
''हां हां सब ठीक है ...आप बैठे तो बेटा जी ....वो नीरू की मेरी कार से टक्कर हो गई थी ...ज्यादा नहीं बस थोड़ी कमजोरी है.....वो कुछ दिनों में ठीक हो जाएगी ...आप चाहे तो उसे घर लेके जा सकते है ''...मैंने अपनी बात को विराम देते हुए उनकी तरफ देखा ..उनकी आँखों से लगा की वो सब गुडिया से मिलने के इच्छुक है ....मैंने विजय को बुला कर उनके साथ गुडिया के कमरे में भेज दिया |
कुछ
देर में अनिल...नीरू को लेकर चला गया....मेरी कोई बेटी नहीं थी ...आज ऐसा लगा की मैंने भी कन्यादान किया ...आज मेरी बेटी विदा हो कर ससुराल गई ..पर वो भी ऐसे...जो एक बाप कभी नहीं चाहेगा .....जाने से पहले गुडिया मेरे गले लग कर रोई...और बोली बाबा.....क्या मै आपकी गुडिया बन के फिर सकती हूँ यहाँ इस घर में ......और मैंने उसके सर पर हाथ रखते हुए आशीर्वाद के साथ यहाँ फिर से ...बार बार आने का निमंत्रण दे डाला ...की ये उसका मायका है वो कभी भी सकती है ....पर जाने से पहले उसने मिलने के बहाने मुझे छिप कर हाथ में एक कागज़ पकड़ा दिया...जिसको मैंने सब से छिपा अपनी जेब में डाल लिया |
सब
चले गए ....मेरा घर....फिर से मकान बन गया...सिर्फ ईंट पत्थर का मकान ..जहाँ मै और सावित्री रहे गए ...एक नये इंतज़ार में...की कौन सा मौका आएगा की इस मकान में फिर सब एक साथ होंगे ...खेर...जाते वक़्त जो कागज़ का टुकड़ा गुडिया ने दिया वो निकाल के मै पढने लगा उस में लिखा था '''बाबा ...मै जानती हूँ आप और विजय भाई मेरा सच जान गए है ......पर बाबा मेरा यकीन करना इन दिनों में मुझे सच में कुछ भी याद नहीं था ...कुछ वक़्त के लिए मै भूल चुकी थी की मै कौन हूँ ..बाबा...अगर आप सच में मुझे अपनी बेटी मानते है तो उस कपिल का सच उसकी बीबी के सामने जरुर रखना....आज उसने मुझे बर्बाद कर दिया....दोस्ती करके करीब आया...और मेरे ही विश्वास का खून करके....मेरी इज्ज़त लूट कर ...मुझे नशा देकर मरने के लिए सड़क पर फ़ेंक दिया ....और नशा भी ऐसा की मै अपनी ही सुध खो बैठी ....मै तो खुद को नहीं बचा पाई ...पर मन में एक आग है...की कपिल फिर से ऐसा किसी लड़की ...किसी औरत के साथ ना करे....आपने अनिल से ये सच छिपा लिया .... पर कब तक बाबा.....वो मै खुद नहीं जानती .....बाबा.....मुझे इन्साफ दिला दो ....ये विनती है आपकी गुडिया की ....बाबा अगर आपका मन कहें की कपिल को सज़ा मिलनी ही चाहिए तो मैंने उसके खिलाफ सारे सबूत...अपने कमरे में रख दिए है ....बस इतना ही कहूँगी .............

एक राजकुमारी

जिसके सपनो में
अब आंसू है
जो मिले है उसे
किसी की कुटिलता
भारी बातो से
क्यूंकि ....
वो नारी है ...
पत्नी और माँ है
बहन है किसी की
बंदिशों में बंधी है उसकी
हर उड़ान मन की
पंख है ..पर
उड़ना नहीं चाहती
उन्मुक्त आकाश में
तोड़ कर जंजीरे इस ..
अपने प्यारे से
जहान की ...

एक सपना झूठा सा
जीने का विश्वास दे गया
पांवों में बांध बेड़ियाँ
जिन्दगी भर
कांटो भारी राह पर
चलने का आभास दे गया
नयनो में चुभ गए
मेरे खुद के आंसू
कदम बढ़ाते ही आगे को
फिसले पाँव गीत -घट फूटा
झुलस गई लतिका तरुणाई
बिखर गया मन का श्रृंगार
इच्छा है मन की
कि
तट मेरा ना
मझधार बने
स्नहे -छावं ना छूटे
और ना उनकी छाया
पथ में मेरे
अंगार बने .......(बाबा...आपकी गुडिया )
गुडिया का वो मुड़ा....हुआ कागज़ पकड़े...मै यूँ ही ज़मीन पर बैठ ना जाने क्यों रो पड़ा ...मेरे मन की पीड़ा मुझे से सही नहीं जा रही थी....तो उस फूल सामान औरत का क्या हाल हुआ होगा ....जो कुछ दिन पहले किसी की हवस का शिकार हुई ...जिस में उस औरत का कोई दोष भी नहीं था ...उसने उसके शरीर से नहीं ..उसकी आत्मा ..उसके विश्वास ..उसकी दोस्ती..का बलत्कार किया था ...उसी वक़्त मैंने अपने मन और वचन से खुद से ये वादा किया कि मै कपिल की पत्नी को उसके सच से रूबरू जरुर करवाऊंगा ...ताकि आगे से कोई गुडिया....कोई औरत उसकी हवस का शिकार ना बने |
और दिन के इंतज़ार के बाद मैंने गुडिया को फोन किया ......और कहा...''बेटू..तुम्हारे बाबा ने तुम्हारा मान रख लिया ...अब कभी भी अपने बाबा के घर तुम सर उठा के जाना'' ||

(अनु)