Sunday, December 30, 2012

ये साल कुछ इस तरह से बीत गया

भाई विजेंद्र शर्मा की ये वो पंक्तियाँ है जिसकी वजह से मेरी आज की ये कविता बनी .....

शर्मसार तो कर गया ,जाते जाते साल
आने वाले साल में ,कैसा होगा हाल ||
(इस उम्मीद के साथ की आने वाले साल में ऐसा दिसम्बर ना आए )
विजेंद्र शर्मा 



                          

सरकार की पनाह में और
कानून की छतरी तले
दाल महंगी हो गई और
सपने अधूरे रहे गए
कुछ लोग रोटी को मोहताज
रहने को मजबूर हो गए
हुकूमत के ही सब रंग ही बस
क्यों,गाढ़े और गाढ़े हो जाते हैं 
बाकि क्यों सब कुछ धूमिल सा रह जाता है ?



सरकार की पनाह  में और
कानून की छतरी तले
अस्मत के लुटेरे हर गुनाह के बाद
बन कर चूहे, छिप जाते हैं 
अपने अपने बिलों में
हर ज़ुर्म के बाद ,
सरकारी पनाह में वो
हमारी दी गई ज़मी पे ही ''हीरो''
क्यों हो जाते हैं ?

सरकार की पनाह में और
कानून की छतरी तले
क्यों अब कोई कानून लागू नहीं
क्यों अराजकता का राज है ?
हर नेता अपने ही दल के साथ
चलाता अब सरकार है
फिर भी मेरा देश भारत
''महान है ''
जहाँ सुरक्षित नहीं है किसी घर की बेटी
वहाँ आज भी ''भारत माता की जय ''
के लगते नारे हैं
फिर भी हम चुमते अपनी माट्टी को है
भरते है अपनी सांसों में इसकी
खुशबू को
तो फिर भी कैसे तानाशाही के
रंग गाढ़े हो गए ?


सरकार की पनाह में और
कानून की छतरी तले
जाने को है ये साल
और आने को है अब नया साल
क्या नए साल में भी इतिहास खुद को
दोहराएगा ?
या
कोई नया सवेरा
झरने सा गीत गाता आएगा ?
होगी एक नयी शुरुआत
या फिर से ये ही कुर्सी दौड़ के प्रत्याशी 
अपनी ही आपाधापी में
यूँ ही दोहराव कर
सबके जीवन को जलाएंगे ?


सरकार की पनाह में और
कानून की छतरी तले
अब हर दिल अजीज़ बस एक ही
सवाल पूछे
कब एक नयी सुबह
हर घर आँगन को चूमेगी ?
कब अल्हड़ जवानी
निर्भय होकर विचरण करने निकलेगी ?
कब दर्द और नासूर का रिश्ता
कोहरे की चादर से बाहर आएगा ?
कब हर घर के रिश्ते
फिर से उसी रंग में
लौट आएँगे, जो खो गए है
देखा देखी के दौर में ?
कब सत्ता की सरकार
गठबंधन से मुक्ति पाएगी और
एक नयी सुबह फिर से
हम सब के बीच लौट आएगी ||

अंजु (अनु)


                           
                                 नए साल (२०१३ )में बहुत कुछ बदलाव के साथ अच्छा होगा इस उम्मीद के साथ,हम  सब नए साल का स्वागत करते हैं |





Wednesday, December 26, 2012

मैं एक नारी हूँ

                                             Artist....Ameeta Verma
 

हे!सखा कृष्ण
मैं एक नारी हूँ ,
आत्मा हूँ हर युग की
मैं एक चुनौती-एक आवाहन हूँ
झंझोरती हूँ तुम्हें कि
जैसे मैं मिटती आई हूँ 
किसी  भी युग की स्थापना हेतु
क्या वैसे ही कोई पुरुष मिटा पाएगा खुद को ?
हे! सखा कृष्ण
मेरे लिए,मेरा रक्त बहाना
कोई नयी बात नहीं है
पर हर युग में
पुरुष ने मुझे श्रेष्ठ संगनी की जगह
श्रेष्ठ भोगिनी बना दिया
काश, किसी ने तो समझी होती
नारी मन की पीड़ा को |

हे!सखा कृष्ण
नारी की सबसे बडी बदकिस्मती कि
क्यों तुमने ही मुझे पंच-पुरुष की(द्रोपदी के मन की बात )
नायिका बना,
द्वंद और लज्जा में है डाला
ग्लानि,संकोच और विरह की ओर
बढते हुए, तब भी मेरे  पाँव 
पत्थर हो जाते थे  
हे! कृष्ण
उनके पौरुष की गरिमा बनाए रखने के लिए
तुमने मेरी अस्मिता को ही
दाव पे लगा दिया
मैं तब भी क्रोध से जर्ज़र हो गई थी 
घोर अपमान लगा था मुझे
एक औरत के मन का, देह का
कि, एक से अधिक पति ?
तुम ये कैसे भूल गए कि
मैं एक स्त्री हूँ
अग्नि को साक्षी रख
क्या सबको पति बना, सिर्फ एक के साथ
स्त्री  का कर्तव्य पालन कर पाऊँगी ?
एक स्त्री होने के नाते मैं
सदियों-सदियों तक
तुम्हारी गलती और अपने क्षोभ
को लेकर अंदर ही अंदर
अपनी ही आग में जलती रही
वो भी बस इसलिए कि
मैं एक नारी हूँ 
हे!सखा कृष्ण 
पर अब कब तक ?
अंजु (अनु)


( ये कविता मात्र एक सोच है, किसी को आहत करने के विचार से नहीं लिखी गई | मानती हूँ हर किसी के विचार अपने हैं अगर किसी को मेरी कविता के भाव,शब्द ठीक ना लगे हों तो क्षमा मांगती हूँ )

Saturday, December 22, 2012

फरमान



कुछ सपनों को तोड़ती-मोड़ती हूँ
कुछ अपने-आप से ही बाते करती हूँ
जिंदगी को बना के महबूब अपना
महबूबा बन,रोज़ उस से
मुलाकात करती हूँ |

सूरज का आना और फिर छिप जाना
अपने मन की नैतिकता से
रोज़ इस खेल का दीदार
करती हूँ
विश्वास के आदर के साथ
बनाई हर तस्वीर का
भीतर की टूटन के साथ
कुछ नए होने का
हर बार इंतज़ार करती हूँ
जिंदगी के रंगों 
और आर्ट ऑफ लिविंग की
सोच से
खुद को ढाल लेने का
बार-बार प्रयास करती हूँ |


कुदरत के ब्रुश से अपने ही
सपनों में रंग भरती हूँ
देखती हूँ उन छोटी छोटी
चिड़ियों को, जो
अपनी इच्छा से चहकती
फुदकती हैं
और उनमें मैं अपना अक्स
देखने की कोशिश करती हूँ
पर हर बार की तरह
मेरे पंख क़तर दिए जाते हैं  |


अपने ही मसीहाओं पर आश्रित हो
ताकती हूँ खुद की सीमाओं के अंदर
अपने ही जीवन के प्रति,मुझे में ही
सच्ची श्रद्धा नहीं है
तभी तो ज़ज्बात ज़ब्त हो जाते है
और मेरा तटस्थ होना भी तो किसी को
गवारा नहीं 
खुद से कोई निर्णय लूँ
उस से पहले ही हिटलरी फरमान की
चिट्ठियाँ थमा दी जाती हैं |

ना कुछ कहने को छोड़ा जाता है 
ना कुछ करने को
फरियादी होने पे भी
खटखटाते दरवाज़े नहीं खुलते
माँगने पे इन्साफ नहीं
मिलता
हाँ !ये ही हाल लगभग सभी का है
आज़ाद होने पर भी
बेड़ियों के ताले जड़ दिए जाते हैं
हर रोज़ एक घटना घटती है 
साधारण सी ही घटती है, पर
अपने आप में गहरे अर्थ,
ढेर सारा विमर्श और
ढेर सारी करुपता लिए हुए
और अंत में, मेरे हिस्से आती है
सिर्फ एक सोच, कि
क्या अब इस जीवन में
कोई संभावना है,मेरे लिए ?
करुणा,करुणा और करुणा
क्या अब इसके अतिरिक्त भी
मेरा कोई जीवन होगा ?

अंजु(अनु)

Sunday, December 16, 2012

मेरी सोच की डायरी के पन्ने


 सालों पहले डायरी लिखने का दिल किया तो,एक डायरी हाथ में आते ही मैंने लिखनी शुरू कर दी| डायरी में लिखी अपने दिन-प्रतिदिन की सोच को आप सबके साथ साँझा करने का मन किया तो आज उसी का ये पहला पन्ना आप सबके सामने लेकर आई हूँ |





पहला  पन्ना!

मैं रोए जाती हूँ, ये सोंचे बिना कि मैं क्यों रों रही हूँ, अपने लिए या अपने उन रिश्तो  के लिए जो मैंने बडी मेहनत से बनाए थे |बहुत बार सोचती हूँ कि  मैं ऐसी क्यों हूँ ? दिल से क्यों सोचती हूँ ? औरों जैसी क्यों नहीं हूँ, बात हुई बात खत्म, हर बात को दिल पर लेने की आदत क्यों पड़ गई है ? सोचती हूँ आज से मैं खुद से और अपने अंदर के भावुक ख्याल को अलग रख, बिना भावनाओं के जीने की कोशिश करुँगी,पर मुझे नहीं लगता कि मैं इस में कामयाब हो पाऊँगी  | जिंदगी मेरी,ख्याब मेरे, भले ही अधूरे हैं जो कभी अपने नहीं हुए फिर भी मेरे हैं और ये जिंदगी मेरे लिए एक ठग से बढ़ कर कुछ नहीं है  | मेरी सोच मुझ से शुरू होकर मुझ तक ही खत्म हो रही थी ठीक वैसे ही जैसे एक बूढी औरत के पास एक मुर्गा था और वो ये सोचती थी कि उसका जब मुर्गा बांग देगा तभी सुबह होगी,इसी वजह से वो पूरे गाँव भर में अकड़ कर चलती थी कि उसके मुर्गे की बांग के बिना सुबह ही नहीं होगी जबकि वो इस बात को नहीं समझ रही थी कि 'सुबह होती है तभी मुर्गा बांग देता है' ये ही सोच सोच का फर्क है, जिस बात को मैं सही मानती हूँ वही बात मेरे सामने वाले के लिए गलत भी हो सकती है ये सोंचे बिना मैंने कैसे अपनी सोच को उस पर थोप सकती हूँ |मैं कुछ समय के लिए ये भूल गई थी कि मेरे बिना भी जिंदगी चलेगी,भले ही कुछ देर थमने के बाद हर काम वैसे ही होगा जैसे मेरे होते हुए हुआ करता है  | ठीक वैसे ही,जब एक रेलगाड़ी पटरी से उतर जाती है तो उसके पीछे आती हुई रेलगाडियों को समय पर चलने के लिए कुछ वक्त लगता है, और वो कुछ वक्त के बाद उसी पटरी से अपने  निश्चित स्थान पर पहुँचनी शुरू हो जाती हैं, ऐसा ही कुछ हाले-बयाँ  हर किसी की जिंदगी का भी है |आज पहली बार मैंने, मेरे मन के भीतर झाँका और देखी अपनी धारणाएँ,अपने पक्षपात,अपने विचार और अपने ही सिद्धांत जिन पर चल कर मैंने अब तक का सफर तय किया है, फिर ऐसा क्यों लग रहा है कि अब भी सफर अधूरा है, कुछ है जीवन में जिस की कमी अब भी खटकती है इस दिल को |मैं बैठी हूँ, लोग आते हैं  बाते करते हैं और चले जाते हैं और मैं यूँ ही बैठी रह जाती हूँ क्यों मेरे भीतर  अब भी चिंताएँ,फिक्रें और बेचैनियाँ हैं उन सब के लिए जिन्हें मैं अपना मानती हूँ और वो मेरे लिए, मेरे बारे में क्या सोचते हैं इसकी चिंता किए बिना एक मुस्कान के साथ इस जिंदगी का एक नया दिन जीने के लिए खुद को ऊर्जित करती हूँ ,एक नई लड़ाई, कुछ खट्टी-मीठी बातें और ढेरों नई सोच के साथ मेरा नया दिन शुरू होता है और शुरू होता है एक नए चेहरे की नई सोच, एक भ्रांति, उस मन दर्पण के साथ जिसके सामने मैं खड़ी हूँ अपना चेहरा लिए,कुछ नए अनुभवों के लिए |

अंजु (अनु)

Thursday, December 13, 2012

आईना

ये कैसी कशमकश है कल दिन भर उस से बात नहीं हुई और मैं बार बार उसे ही सोचती रही कि अभी फ्री होगा अब मुझे उसका फोन आएगा, मेरे मोबिल पर अभी उसका कोई sms आएगा, पर पूरा दिन निकल गया | आज एक नया दिन है पर अभी तक कोई सम्पर्क नहीं, उसका कोई अता पता नहीं मन की हलचल है जो थमने का नाम नहीं ले रही उसके लिए क्या सोचूं और क्या नहीं, मन की सोच बस गलत ओर ही जा रही है कि उसे कुछ हुआ ना हो, ये ही सोच एक ही जगह स्थिर हो चुकी है खुद से बाते करने की ये स्थिति मुझे मेरे से ही  हर बार ये ही प्रश्न करने के लिए खड़ा कर देती है कि क्यों किसी का भी इंतज़ार इतना तकलीफ़देह होता है और कुछ ही देर में मैं खुद को आईने के सामने देखती हूँ और खुद को देखते हुए बस ये ही सोचती हूँ कि मैं सुन्दर क्यों नहीं हूँ,काश मैं भी सुन्दर होती तो वो एक नज़र भर मुझे देखता, उसकी आँखे भी मुझ से कुछ कहती और मैं शरमा कर अपनी आँखे नीची कर लेती और पैर के अंगूठे से ज़मीन पर यूँ ही कुछ खरोंचने का दिखावा करती, पर मैं कभी उस से अपने दिल की बात कह ही नहीं पाई और आज बरसों बाद उसका यूँ मेरी जिंदगी में आना, एक नयी कशमकश को जन्म दे गया है |  ये बात मुझे अब बार बार कचोटती रही है कि आखिर ऐसा अब इस वक्त क्यों,वक्त की चादर में ऐसा क्या छिपा है जो मुझे नहीं दिख रहा ?खुद को फिर से आईने में देखती हूँ तो दो आँसू गिरते हैं  और फिर जिन्दगी की आवाज़ आती है और मैं आँसू  पोंछती हुई अपने वर्तमान में लौट आती हूँ एक नया दिन जीने के लिए सबके साथ, सबके लिए | कोई बुरा सा ख्याब देखते हुए में आज जागती हूँ और खो जाती हूँ अपनी इस दुनिया में, सबके लिए |
वक्त बीतने लगा, मैं फिर से एक अनचाही नींद से जागती हूँ और सोचती हूँ खुद और तुम्हें कि  हम लोगों की दोस्ती ने (हो सकता है ये प्यार भी हो ) नए आयाम तय कि थे हम दूर होते हुए भी करीब रहें पर अब जबकि मैं ये जान गई हूँ कि अब तुम नहीं हो ये जानते हुए भी तुम्हें सोच कर लिख रही हूँ अब तुम कभी नहीं आओगे ना ही हम दोनों के बीच कोई बात होगी और दोनों के एक होने का कोई भी अहसास आज से आएगा | ये वक़्त ऐसा है कि हम दोनों ही इस वक़्त खूब बातें हुआ करती थी  कि कुछ पल पूरे दिन के बाद हम दोनों साथ रहते थे, साथ बैठे, साथ बातें की पर आज से वो भी नहीं होगा, ना मैं तुम्हारे करीब आ पाऊँगी और ना तुम्हारी गोद में सर रख के सुकून के वो पल मुझे नसीब होंगे और अब मुझे तुम्हारे ही बिना रहने की आदत डालनी होगी, कुछ दिन के लिए मन बहुत तड़पेगा, बहुत याद आएगी तुम्हारी, पर इसके बाद मुझे तुम्हारे ख्याल के बिना रहने की भी आदत हो जाएगी |तुम जानते हो ना मैं तुम्हारी गोद में सर रख कर अपने दिन भर की बातों को तुम्हें बताती हूँ और तुम अपनी उँगलियों से मेरे बालो में हाथ फेरते हो तो ऐसा महसूस होता था कि हम दोनों ही इस जाहन से नहीं हैं हम दोनों दूर किसी देश से भटक कर इस दुनिय में आ गए है और मुझे हर वक्त ये अहसास होता था कि आस पास के लोग विचित्र नज़रों से हमको देखते भी हैं,फिर भी हम दोनों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता हम अपनी ही दुनिया में मस्त रहते थे तुम मुझे निराहते हुए खुद के करीब करते थे और मैं तुम्हारे ही निहारने में खुद को ले कर खो जाती थी ये कैसा अहसास था, क्या तुम जानते थे  ?
ताकती हूँ उस खाली से आसमां को, जहाँ आज तारों की चमक भी फीकी सी लगती है और पूछती हूँ उस खुदा से अपनी सूनी आँखों से कि क्यों छीन लिया मेरा हर अहसास उसके साथ ही,जिसने मुझे इस जहान में सबसे सुन्दर बना दिया था कुछ ही दिनों में, पर तुमने उसे वक्त से पहले अपने पास बुला लिया है अब मैं इस अहसास का क्या करुँगी, जो मुझे अब नहीं मिलेगा उसे  और मुझे अब ऐसे ही अलग अलग जीना होगा, मुझे मेरी और उसे तुम्हारी दुनिया मुबारक हो कि अब के बाद से उसका कोई भी ख्याल मुझे आ कर परेशां नहीं करेगा, पर ऐसा कैसे होगा ये मैं भी नहीं जानती |ऐसा क्यों है ? इस बात का जवाब तो मेरी सूजी आँखों और मेरे आईने के पास भी नहीं है |
 
अंजु (अनु)

Wednesday, December 5, 2012

तलाश ...इस मन की

 आज दिन में आमिर खान ,रानी मुखर्जी और करींना  कपूर खान अभिनीत तलाश फिल्म  देखी ,फिल्म  अच्छी थी ,धीमी गति से चलती हुई सी इसने बोर नहीं होने दिया .पर सोचने को बहुत कुछ दिया ,ये हिंदी सिनेमा वाले ,अपने दर्शको की नब्ज़ को बहुत अच्छे से जानते है ,यहाँ कुछ नया करने की होड़ हर वक्त लगी रहती है | आज कल टीवी और सिमेमा दोनों ही तरफ़ मृत्यु के बाद के जीवन को दिखा कर दर्शकों में उत्सुकता पैदा करना चाह रहे है ,इस फिल्म में भी आमीर खान के बेटे की मृत्यु के बाद भी उसके वजूद को आत्मा से बात करने वाली एक औरत के माध्यम से दिखाया गया है जो कि रानी मुखर्जी ( उस मरे हुए बेटे की माँ और आमीर की पत्नी के रूप में )बात करते दिखाया गया है और वही साथ के साथ करीना कपूर खान को भी एक आत्मा के रूप में दिखाया गया है जो कि इस फिल्म के अंत में पता चलता है बस ये ही सस्पंस है इस फिल्म का ........पर असली  मुद्दा ये है कि ...क्या सच में मृत्यु के बाद आत्मा होती है ? क्या कोई ऐसा जीवन है जो मृत्यु के बाद शुरू होता है एक अनंत यात्रा के रूप में ? क्या हम मरे हुए लोगों से संपर्क कर सकते है ,उनसे बाते कर सकते हैं ?ऐसे बहुत से प्रश्न मेरे दिल और दिमाग को झंझोर रहे हैं क्यों कि ...अपने पापा की मौत के बाद मैंने भी अपने पापा को बहुत शिद्दत से याद किया है उन्हें मिस किया है (और शायद मेरे जैसे कितने ही दोस्त बंधु होंगे जो ठीक मेरे जैसा सोचते होंगे )...तो फिर क्यों नहीं पापा ने आज तक , किसी के माध्यम से मुझ से संपर्क किया ? क्यों नहीं वो मुझ से बात करने आए ?पापा के जाने के बाद मेरी माँ भी तो कितनी अकेली थी अगर आत्मा का कोई वजूद है तो वो क्यों नहीं हम लोगों की खोज खबर लेने आए ?

है कोई उत्तर इस बात का ???????


सच कुछ भी हो ...वो मैं नहीं जानती ....पर अपनी एक सोच आप लोगों के साथ साँझा कर सकती हूँ .....

 

 

आंखे .....

पापा को जब ,याद करके
रोने लगी जब ,ये आंखे
जो रों रों कर ,मैं भूल चुकी  थी 
सुख दुःख की
परिभाषा को
और भूल चुकी थी सब कुछ
केवल इतना याद रखने को
बनते देखा ,मिटते देखा
अपनी ही अभिलाषा को
दिल मे उठा दर्द है
निज  धुँधले अरमानों का
नहीं आज तक सुन पाई हूँ
उर के अस्फुट गानों का
ख़ुशी की तलाश में देखने
चली थी मैं
निर्जीवों के इस समूह में
जीवित कौन निराला है
पर गमो को साथ लिये
आज  हलाहल छलक रहा 
पीड़ित मन की आँखों से
लौटी हूँ मैं खाली हाथों से
देख  उनकी
मौन-निस्पंद पड़ी काया , मृत्यु की बाहों में ||
 अंजु ( अनु )