Thursday, January 31, 2013

विश्व पुस्तक मेला ...दिल्ली (इंटरनेशनल बुक फेअर )


 आप सब सादर आमंत्रित हैं ......विश्व पुस्तक मेला ...दिल्ली


मैं,अंजु चौधरी अपना दूसरा कविता संग्रह "ए-री-सखी " और स्वत्रंत संपादन के क्षेत्र में कदम रखते हुए ''अरुणिमा'', एवं मुकेश कुमार सिन्हा जी और रंजू भाटिया जी के साथ मिल कर हम लोगों का दूसरा साँझा काव्य संग्रह ''पगडंडियाँ''के विमोचन के अवसर पर हम आप सबको दिल से आमंत्रित करते हैं .आपकी सब की उपस्थिति और शुभकामनाएँ हमें संबल देंगी और नव सृजन के लिये प्रोत्‍साहित करेंगी.

दिल्ली के प्रगति मैदान में ४ फरवरी २०१३ से शुरू हो रहें विश्व पुस्तक मेला (इंटरनेशनल बुक फेअर )में ,१० फरवरी २०१३ का दिन तीनों ही पुस्तकों के विमोचन के लिए निश्चित किया गया है ''पगडंडियाँ'' और ''अरुणिमा'' के सभी प्रतिभागियों  से नम्र निवेदन कि आप लोगों की उपस्थिति हमारा हौंसला बढाएगी इस लिए आप सब दोस्तों से निवेदन हैं कि, मैं (अंजु(अनु) चौधरी ) और मुकेश कुमार सिन्हा आप सभी मित्रों को १० फरवरी को इस अवसर पर आने का निमंत्रण देते हैं कि आप सब वहाँ उपस्थिति रह कर इस पल को यादगार बनाएँ |

आप सब सादर आमंत्रित हैं ......विश्व पुस्तक मेला,प्रगति मैदान ,नई दिल्ली.... ऑडीटोरियम no 3 ....hall no 18....sunday 10 feb(रविवार १० फरवरी ) वक्त है ..2.30 to 4.30 pm



आभार

मुकेश कुमार सिन्हा

शैलेश भारतवासी (हिंदी युग्म )
 

अंजु(अनु) चौधरी

Thursday, January 24, 2013

ये कैसा गणतंत्र,ये कैसी आज़ादी ?


कहर ढहते देखे
इस तूफानी दौर में
सभी चोर हैं 
इस तूफानी दौर में
लहरों से आगे तो निकल गए हैं 
पर खाईयों को दिखा कर डरा रहें
इस तूफानी दौर में |

इस तूफानी दौर में,
मन में छिपा है,
पढ़ा-लिखा सभ्यता का चोर
आसमां को छूने की तमन्ना में
जो कुतर रहा अपने ही घर का कोना-कोना
बूढी हो चुकी व्यवस्था के आईने को
दरारों के हाशिये पर जब भी देखती हूँ,
बस उसे, नम आँखों से ही ताकती हूँ
पीड़ा का घूँट पीकर
नए सृजन का सोचती हूँ
फिर भी, चारों ओर शोषण का जाल ही दिखता है,
चेतना आधारहीन है,
सबलता का कुछ अता पता नहीं,
बलात्कार का है बोलबाला,
हर तरफ मुनाफे की खुली है मधुशाला,
सता के नशे में चूर,
शोषण की चोट से बिलकता हर आम इंसान हैं
ऊपर से महंगाई की दोहरी मार है  |

इस तूफानी दौर में
है चोरों ओर अँधेरे का राज
गाँव,शहरों,गलियों और चौराहों से
बिलख-बिलख कर निकलती है
अब हर किसी की आवाज़
कि, सभी नेता चोर हैं
धृतराष्ट बन धृत पीने लगे हैं
और सभी के चाल-चरित्र,चेहरे आतंकियों के
समान ही सजने लगे हैं
धोखा,साजिश और करोडों का घपला
अब इस देश का हाल
''अंधेर नगरी का चौपट राजा''जैसा है 
जिसने आज़ादी को भी 
अँधेरे में डाला है 
गेहूँ,चावल,दालों की भूखे आदमी के अन्न को भी
खा रहें हैं,सरकारी सफेदपोश चूहे
सरकारी गोदामो में सब-कुछ सड़ाकर फेंक रहें हैं
समुन्दर में देश के दक्षिणी भागो में,
क़र्ज़ में डूबता किसान ,
फांसी पर भी लटकते-मरते देखे हैं |


इस तूफानी दौर में,
आज भी,सीमा पर जवान मारे जाते
यतीम होते बच्चे
विधवा होती भारत की बिटियाँ
सूनी होती माओं की गोदें
बूढ़े बाप ढोते हैं लाशें जवान फौजी बेटों की
और नेता आराम से भाषण बांचते, सोते फिरते हैं |
ये कैसी आज़ादी,कैसा ये गणतंत्रत है
हर बार की तरह
इस बार भी २६ जनवरी को
देश के राष्ट्रपति,इंडिया गेट पे सलामी लेंगे
दो शब्द सहानुभूति के बोलेंगे
कि हम ने इस देश के लिए,
क्या-क्या किया या कर रहें हैं
वो रटारटाया,कागज से देख-देख
भाषण तो दे देंगे,पर
उनके इतने वादों और इरादों के बाद भी
घोर निराशा के जंगल में
इन नेताओं के भेष में
भ्रष्ट लुटेरे डाकू दिखते हैं
ये सभी वोटो के भिखारी  
इस देश पर आज भी भारी हैं
क्यों फिर भी हम,
इतने सालों बाद भी 
अपनी आज़ादी और गणतंत्र को
इस तरह मना रहें हैं?
जबकि आज तक भी,
हमारे देश को इन लुटेरों ने घेर हुआ है 
क्यों,हर बार मेरा मन, मुझे से ये पूछे
उफ़,ये कैसा है गणतंत्र और कैसी है ये जश्न-ए-आज़ादी ?

अंजु(अनु)

Saturday, January 19, 2013

एक लम्बा सा मौन



                                                        (फेसबुक से लिया गया चित्र)
 
कब और कैसे,
एक लम्बा सा मौन
पसर चुका है हम दोनों के बीच
ये मौन बहुत शोर करता है
और कर देता है बेचैन इस मन को
तुम्हारी सोच की संकरी गली से
गुज़रने के बाद
मैं देर तक खुद के अन्धकार में
भटकती हूँ 
और सोचती हूँ,ये मौन कहाँ से आता है ?

कब और कैसे,
कभी ना खत्म होने वाला
तेरे और मेरे बीच
बातों और विवादों का ऐसा मकड जाल
जो अब टकराव की सीमा तक
आ कर थम गया है,
और मैं ये भी जानती हूँ
जिस दिन ये टकराव हुआ
उस दिन हम दोनों की दिशाएँ
बदल जाएँगी
तुम  दूर चले जाओगे और बसा लोगे
अपनी एक नयी दुनिया
क्यों कि मैं जानती हूँ कि
खुद के जीवन में
पथराए आँचल से,
पर्वतों के शिखर तक मौन उड़ते है 
जिस से इस जीवन में   
उग आती हैं वीरानियाँ इतनी
जिसे जितना काटो, वो ओर 
फैलने लगती है,नागफणी सी
क्योंकि  
ये जिंदगी की धूप भी
अजीब होती है, नहीं चाहिए तभी
करीब होती है और
रात की चांदनी में जब भी
सोना चाहो
वो तब ओर भी कोसो दूर
महसूस होती है
इस लिए तो,
कब  और कैसे,
मैं,खुद को धकेल कर अलग करती हूँ,
और देर तक खुद के अन्धकार में
भटकती हूँ 
और सोचती हूँ,
कब और कैसे,
ये मौन कहाँ से आता है ?

अंजु(अनु)

Friday, January 11, 2013

हुन धीयां दी लोहड़ी मनाइए




लोहड़ी  मनाने के साथ कोई पौराणिक परंपरा नहीं जुड़ी हुई है,पर इस से जुड़ी प्रमुख लोककथा दुल्ला भट्टी की है जो मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था |कहा जाता हा कि एक ब्राह्मण की दो लड़कियों सुंदरी और मुंदरी के साथ इलाके का मुग़ल शासक जबरन शादी करना चाहता था,पर उन दोनों की सगाई कहीं ओर हुई थी लेकिन  उस मुग़ल शासक के डर से उनके भावी ससुराल वाले शादी के लिए तैयार नहीं थे |
 इस मुसीबत की घड़ी में दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की मदद की और लड़के वालो को मना कर एक जंगल में आग जला कर सुंदरी और मुंदरी का ब्याह करवाया, दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया और शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी और इसी कथा को लोहड़ी वाले दिन गीत के रूप में अब तक गया जाता है

सुंदर मुन्दरिय हो,
तेरा कौन विचार-,
दुल्ली भट्टी वाला-हो,
दुल्ले ने धी ब्याही-हो,
सेर शक्कर पाई-हो,
कुडी डे बोझे पाई-हो,
कुडी डा लाल पटारा-हो,
कुडी का शालू पाटा-हो,
शालू कौन समेटे-हो,
चाचा गाली देसे-हो,
चाचे चूरी कुट्टी-हो,
जिमींदार लुट्टी-हो,
जिमींदार  सदा-हो,
गिन-गिन पोले लाओ-हो,
इक पोला घस गया,
जिमींदार वहुटी लै के नस्स गया
हो-हो-हो-हो-हो-हो-हो-हो||

जब ये लोककथा दो लड़कियों के ऊपर बनी है तो फिर कैसे ये लोहड़ी की प्रथा है जो सिर्फ लड़को के जन्म और शादी की खुशी में मनाई जाने लगी है ?क्यों अब हर वक्त लड़को के जन्म के वक्त खुशी मनाई जाती है ?
क्यों  ...रिश्तों की मधुरता एवं प्रेम का प्रतीक लोहड़ी का त्यौहार लड़के के जन्म की खुशी व्यक्त करने के लिए अब तक मनाया जा रहा है, लेकिन अब रूढ़िवादी लोगों में लड़का-लड़की के अंतर को खत्म करने के लिए लड़कियों की लोहड़ी भी बनाई जानी चहिए, तभी ये लकड़े-लड़की के भेद-भाव को खत्म किया जा सकता है |
दिल्ली के FM और हर जगह इस बात को बड़े ज़ोर-शोर  और इस नए संकल्प के साथ कि लड़के और लड़की में कोई भेद नहीं है इस नचदी गांदी लोहड़ी नू, सब नाल मिल के धूम-धाम नाल  हुन धीयां*दी लोहड़ी मनाइए||(धीयां ....बेटी )

लोहड़ी और मकर सक्रांति का ये पर्व आप सबके लिए मंगलमय हो (साभार ..गूगल एवं पंजाब केसरी )


Tuesday, January 8, 2013

कुछ रिश्ते मन के ऐसे भी





एक  सोच है, जब कोई अड़चन या मन में दुविधा हो तो खुद से अकेले में बाते करना, सोचना और एक नयी उर्जा के साथ आगे बढ़ना,मन में एक नयी रोशनी का संचार करता है |बहुत अधिक सोचने की अवस्था में किसी एक दोस्त की छोटी सी कही गई बात भी मन के भीतर उत्साह भर देती है|

कुछ रिश्ते मन के ऐसे भी

हम अपने साथ साथ
अपने साथ के समस्त तारों को
अपने अंदर चमकते हुए महसूस करते हैं
ये सब,हमारे भीतर अपनी अपनी
रोशनी संग विराजमान हैं
जब जग सो जाता हैं ,
तो विचार और शब्द हमारी
सोच के साथ
आंखमिचौली खेलने लगते
नींद से बोझिल आँखे,
अचानक से, मौन के तारे गिनने लगती है
रात की अटारी में हम सब
अपने अपने विचारों संग
एक नया गीत बुनते हैं
रात की चलती पवन
मन में उठे अति उत्साहित विचारों को
शब्द देती हैं
और हम सारथी बन
अपने गीतों को
एक  नई राह दिखाते हैं ,
हमारी आशाओं से 
स्वतंत्रत विचार बनते  हैं
जैसे मरुस्थल का अपना सौंदर्य होता है
और पत्थर भी पूजे जाते हैं
ठीक वैसे ही,वो खुदा
हमारी असफलता में हाथ थामता है
और सफलता की राह की ओर
हमें एक साथ आगे बढ़ाता हैं
दिन प्रतिदिन,धीरे-धीरे
हम कदम से कदम मिला
आज और सदा-सर्वदा के लिए
एक ही पथ के साथी बन
उन्मुक्त भाव से,
अब हम
साथ साथ विचरण करने को तैयार हैं |

अंजु(अन)