Thursday, June 21, 2012

क्षितिजा

क्षितिजा

तुम कहते हो
निकलता हुआ चाँद
मुझे ही ताकता है
पर हर सांझ वो
मुझे बहुत रुलाता है
जब तुम से बिछड़ कर
जाने का वक़्त करीब
आता है ..
तुम से बिछड़ने से पहले
मैं खुद में विस्तार पाती हूँ
कनपटियों पर बजती हैं
खड़-खड़ उसाँस तुम्हारी
और
तुम्हारी ही हँसी के
चाँदी जैसे कण
बिखरने लगते है
मेरे चारो ओर
यह खंड-खंड टूटता हुआ सूरज
 और फटता हुआ मेरा मासूम ह्रदय
किसी तरह भी
रोक नहीं पाता
क्यों.. 
बंधी मुट्ठियों से फिसलती है
हर दिन की आखिरी किरण
दे जाने को एक नई
सांझ जीवन की
उठती हुई ...क्षितिजा को ||

अनु

Tuesday, June 12, 2012

चाय का कप




चाय का कप
 
चाय का कप
जो पकड़ाया  तुमने
तो ..हाथ को छू गए
वो एहसास ...अंदर तक
जो है साथ होने का
साथ देने का
और प्यार से कहने का
अनु...लो चाय ..
हम साथ पीयेंगे   
बैठ कर यही
इस बालकोनी में .....
थी ठण्ड
पर महसूस नहीं हुई
तुम्हारे करीब आने से
या उस
चाय के आने से
कब दिया तुमने वो
प्याला मुझे?
कब मैंने उसे
पी डाला था  ?
तुम्हारी ही मदहोशी में
एक एहसास भर था
ठण्ड में
तुम साथ हो
पर ,तुम्हरे साथ ने
उस मदहोशी को
बरक़रार रखा
कब  ,तुम उठे
कब लेके आए  
दुशाल मेरा....
 फिर से मिला
नरम एहसास और
 स्पर्श तुम्हारा
तुम बोले
लो एक कप ओर चाय .............. ||
 
अनु 
 

Friday, June 8, 2012

हम भी चलो लगाएँ पेड़ .......



हम भी चलो लगाएँ पेड़ .......


लगते हैं हमको अति प्यारे
हरे भरे ये सुन्दर पेड़
हरित वसन ये धरती माँ के
अनुपम पर उपकारी पेड़ |
धूप ओढ़ लेते हैं सिर पर
दूषित वायु स्वयं पी लेते
प्राण वायु देते हैं पेड़ |
औषधियों ,फल-फूल दे रहे
पर हमसे कुछ ना लेते पेड़
खड़े हुए हैं छाता ताने
पथ का श्रम हर लेते पेड़
स्वयं खड़े रहते जीवन भर
हम को कुर्सी देते पेड़
आंधी ,पानी ...सर्दी -गर्मी
करते सहन पल पल ये
प्यास बुझाने को धरती की
काले काले मेघ बुलाते ये पेड़
बड़े प्यार से हम को
सावन में झूला झुलाते ये पेड़
हम स्वार्थी निर्दयी हाथों से
कभी ना कटने देंगे पेड़
चलो बने हम भी ,पर उपकारी
हम भी लगायें खूब पेड़ ||