फिसलता सिंदूर
सारे रंग
सारी रोशनियाँ,
सारे मौसम
और अंश-अंश तुम्हारा
बिखर गया
इन दंगो की मार में
मेरी मांग से ही क्यों
तुम्हारा दिया
सिंदूर फिसल गया ||
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दंगे
गुलमोहर के कुछ ऊपर से
फिर ऊपर से कुछ ऊपर,
जहाँ से आज की सांझ
बहुत रुलाती है
खंड-खंड टूटता हुआ
आदमी
आदमी को ही कुचलता हुआ
आगे बढ़ता है |
जहाँ,साम्प्रदायिकता की आग
हर किसी की चेतना को
तोडती हुई आगे बढ़ती है
गली-कुचों में
बिखरी लाशें
सत्ता के भूखे भेड़ियों या
फिर धर्म के नाम पर रची जाने वाली
साजिशों की ....
किसकी चाल या
किसकी हैवानियत को बयाँ करती है
क्यों इन दंगो की आग
सिर्फ मासूमों को ही
जला कर राख करती हैं ?
अंजु(अनु)
46 comments:
तुम्हारा दिया
सिंदूर फिसल गया''
आह्ह्ह दुखद संदेश का मार्मिक अंकन
खंड-खंड टूटता हुआ
आदमी
आदमी को ही कुचलता हुआ
आगे बढ़ता है''
अभिलाषित जीवन आज अभिषापित बन रहा है,
और हम सब समझ नहीं पा रहे हैं।
बहुत ख़ूब सामायिक घटनाक्रम पे आपकी लेखनी।
शुक्रिया अभिषेक
अत्यन्त मार्मिक किन्तु यथार्थ लेखन |
दंगो ने बहुत दुःख दिए हैं |
अभी तक मन गमगीन हैं |
.....हमसे तो अच्छे वे परिंदे हैं जो कभी मंदिर पर जा बैठे ,कभी मस्जिद पर |
सही कह रहे हो अजय भाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति बिलकुल यथार्थ,
शुक्रिया मनोज जी
आपने लिखा....
हमने पढ़ा....और लोग भी पढ़ें;
इसलिए बुधवार 11/09/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in ....पर लिंक की जाएगी. आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
सुन्दर प्रस्तुति...!
--
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज मंगलवार (10-09-2013) को मंगलवारीय चर्चा 1364 --गणेशचतुर्थी पर विशेषमें "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
आप सबको गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
nice
बहुत मार्मिक रचना..
नमस्कार आपकी यह रचना आज मंगलवार (09-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
दोनों रचनाएँ मन की वेदना को कहने में सक्षम हैं ..... गुलमोहर की लाली जहां मन को उल्लासित करती है वहीं धरती पर फैली लाली मन को क्षोभ से भर देती है ।
fisalta sindooor...
bahut sach...
बहुत ही मार्मिक रचना......
सच ये दंगे बहुत व्यथित करते हैं
अंजू जी, सिंदूरों ने अभी कोई राजनैतिक पार्टी ज्वॉइन नहीं की है ना इसलिए फिसल रहा है....जिसदिन कर लेगा यकीन मानिये फिर वो किसी गली में खड़ा फिसलेगा नहीं..दंगों के दर्द की तरह चिपक जायेगा।
अभी सिंदूर का किसी पॉलिटकल पार्टी से एग्रीमेंट नहीं हुआ है ना इसलिए फिसल रहा है...
दंगो की ये मार ने,मिटा दिया सिन्दूर
जनता झेले ताप यह,राजा मद में चूर...
गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाए !
RECENT POST : समझ में आया बापू .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।
बेहद मार्मिक ...आह ! कुछ कहा न जाय...
बहुत सुन्दर कविता। सिन्दूर का फिसलना बढ़िया विम्ब चुन है। आपकी अच्छी रचनाओं में से एक।
शुक्रिया शास्त्री जी
आभार यशोदा जी
शुक्रिया अरुण
न जाने कितने सिन्दूर मिट जाते हैं इन दंगों की चपेट में ...
बहुत मार्मिक ... संवेदनशील रचना है ...
क्यूंकि इन मासूमों कि चिताओं पर ही आजकल की गंदी राजनीति के गंदे नेताओं की रोटियाँ जो सिकती है। वाह!!!अनुपम भाव संयोजन बहुत बढ़िया लिखा है दंगो के सच को ब्यान करती रचना है अंजु जी...बहुत बढ़िया
बहुत उकता गया हूँ ज़िन्दगी से चले ज़गलों में कहीं एक घर बना लें,दंगों में ज़िन्दगियाँ बरबाद कर दिया है
सारे रंग
सारी रोशनियाँ,
सारे मौसम
और अंश-अंश तुम्हारा
बिखर गया
इन दंगो की मार में
मेरी मांग से ही क्यों
तुम्हारा दिया
सिंदूर फिसल गया ||.दिल को छु गये यह लफ्ज़ ............ और कोई नही सुन रहा सिसकिया न सिंदूर की न खिलोनो की
दंगों की वेदना से मन में तीव्र विराग उत्पन्न होता है. बेकसूर लोग मारे जाते हैं. बहुत ही सटीक और सामयिक रचना.
रामराम.
मार्मिक और प्रासंगिक अभिव्यक्ति .... संवेदनशील भाव
क्यों इन दंगो की आग
सिर्फ मासूमों को ही
जला कर राख करती हैं ?
बहुत मार्मिक.
इन दंगो की मार में
मेरी मांग से ही क्यों
तुम्हारा दिया
सिंदूर फिसल गया.........बहुत मार्मिक.
इन दंगो की मार में
मेरी मांग से ही क्यों
तुम्हारा दिया
सिंदूर फिसल गया ---गहरी सोच ,मार्मिक सुन्दर रचना
latest post: यादें
bahut hi marmik rachana Anu ji ........ye danga samajvadi party ki den hai .
सारे रंग
सारी रोशनियाँ,
सारे मौसम
और अंश-अंश तुम्हारा
बिखर गया
इन दंगो की मार में
मेरी मांग से ही क्यों
तुम्हारा दिया
सिंदूर फिसल गया
:( ये हालात भी कब क्या से क्या हो जाते हैं
बेहद मार्मिक |
बेहतरीन अभिव्यक्तिया मार्मिक
दंगों के मर्म को बखूबी दर्शाती कविता हैं दोनों...
खंड-खंड टूटता हुआ
आदमी
आदमी को ही कुचलता हुआ
आगे बढ़ता है......
अंजू जी यह आज का भयावह सच है...
दिल को छू गई आपकी बात;-))
बहुत सुन्दर और मार्मिक प्रस्तुति ..
गहन अभिवयक्ति......
दंगे एक ऐसा दर्द जो कभी ख़त्म नहीं होता
त्रासदी हमारी नियति है :-(
बहुत मार्मिक और सार्थक प्रस्तुति...
क्यों इन दंगो की आग
सिर्फ मासूमों को ही
जला कर राख करती हैं ?
............ संवेदनशील भाव बहुत मार्मिक !!
आपकी इस रचना को सोमवारीय चर्चा(http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/) में शामिल किया है, जरुर पधारें।
सुन्दर और सटीक प्रस्तुति !!
दोनों रचना बेहद मर्मस्पर्शी!
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