Sunday, May 17, 2015

बेटे की ख़्वाहिश................(अनुवादित कहानी)

नीता कोटेचा''नित्या''
Neeta Kotecha की लिखी गुजरती कहानी....''बेटे की ख़्वाहिश''जिसका अनुवाद मैंने किया है उस कहानी को कनाड़ा से प्रकाशित पत्रिका ''प्रयास'' में स्थान देने के लिए सरन जी का आभार
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ये गुजराती कहानी कुछ इस तरह है ....





" नही हमीद , आज हम खाना खाने नही जायेंगे. आज भी तुम वडा-पाव खा लो.. आज पैसे कम है बेटा. .."
" दादीजान , ओर कितने दिन हमें इस तरह कम कम खाना है.. अब मुझ से भूखा नहीं रहा जाता. कितने दिन से चिकन नहीं खाया. यहाँ की केंटीन में देखो ना कितना अच्छा खाना मिलता है |
सलमा अपने आँसुओं को छिपा कर बोली ः हमीद बस अब थोडे दिन ओर बेटा , अम्मी को घर ले जायेंगे फिर हम सब वापस अच्छा खाना खायेंगे "
सलमा को समझ नही आ रहा था कि वो हमीद को कैसे समझाए कि उसकी अम्मी को कैंसर था और उसके इलाज के लिए बहुत सारे पैसे बाहर से लेने पड़ते हैं इसी लिए आज-कल घर में पैसे कम पड़ जाते थे |
पर उस बच्चे में इतनी समझ कहाँ से होती .....वो बस अपनी भूख को समझता था, उसे तो बस खाना चाहिए था |
सलमा अपने वो दिन याद कर रही थी जब वो अपने परिवार के साथ सुकून की जिंदगी बसर कर रही थी |वो, उसका बेटा-बहु और उसका पोता हमीद |उसका बेटा ऑटो चलाता था और इसी में वो सब बहुत खुश थे |और एक दिन अचानक पता चलता है कि उसकी बहु शमशाद को कैंसर है और वो भी लास्ट स्टेज पे |बहु को तुरन्त इलाज के लिए हॉस्पिटल में दाखिल करवाया गया |
उस दिन से आज तक जैसे होस्पिटल ही घर बन गया है.. शमशाद की अम्मी नहीं थी |
तो वो ही उसकी सास और माँ भी थी.. बेटा दिन रात ऑटो चलाता था कि इतने पैसे इकट्ठे हो जाए कि वो अपनी बीबी का अच्छे से इलाज करवा सके पर सलमा दिल मे जानती थी की शमशाद अब कुछ ही दिनो की मेहमान है पर वो बेटे को कैसे कहे कि इतनी मेहनत मत करो जिस से की तुम खुद बीमार हो जाओ...... ....ना चाहते हुए भी जैसे सब की जुबान पे ताले लग गये थे.
हमीद को शमशाद के पास जाने की मनाई थी , शमशाद हमीद को गले से लगाने को तरस सी गई थी. पर हॉस्पिटल के नियमो के आगे सब बेबस थे |हॉस्पिटल के नियमों को ताक पर रखते हुए सलमा ने एक दिन डॉक्टर से कहा कि मरती हुई माँ को उसके बेटे को जी भर के देख लेने दो ....शायद उसकी आत्मा को कुछ तसल्ली मिल जाए|शायद जिंदगी के आखिरी पलों में उस माँ के दिल में जीने की चाहत बनी रहें|
सुबह-शाम हॉस्पिटल में हाज़री देते-देते अब सलमा भी थक चुकी थी और वो थकान उसके चेहरे पर दिखाई तो देती थी पर वो बड़ी ही सफाई से उसे छिपाने का हुनर भी जानती थी |बस उसके लबों से एक ही दुआ निकलती थी कि ''ऐ खुदा !मेरे हमीद की अम्मी को बचा लो क्योंकि माँ जितना प्यार बच्चे को कोई ओर नहीं दे सकता ''|
शमशाद को हॉस्पिटल में दाखिल करते वक़्त डॉ ने ज्यादा से ज्यादा 45 दिन का वक़्त दिया था और आज शमशाद को यहाँ आए हुए 20 दिन पूरे हो चुके थे....पता नहीं अब ओर कितने दिन की जिंदगी बची है....ये ना तो डॉ बता सकते थे और ना ही वो बताना चाह रह थे |
आज बीस दिन पूरे हो गए थे...रोज़ की तरह असीम अपनी अम्मी के पास बैठ कर दिन गिनता और अपनी मजबूरी पर रोना नहीं भूलता था और इन दिनों सलमा अपने बेटे के साथ साथ अपने पोते हमीद को भी बखूबी संभाल रही थी | वो किसी की हिम्मत को टूटने नहीं दे रही थी, भले ही वो खुद अंदर टूट चुकी थी क्योंकि वो जानती थी कभी भी कुछ भी हो सकता है |
सलमा और असीम बस किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए बैठे थे पर कैंसर जैसा रोग इंसानों की तो छोड़ो...ये तो खुदा की भी पुकार भी नहीं सुनता बस ये तो एक बार आया तो इंसान की जान लेके ही जाता है |
हर डॉ का भी ये ही कहना है कि 'भले ही हमारे विज्ञान ने बहुत प्रगति कर ली है पर हम आज तक ये पता नहीं कर पाये कि कैंसर कैसे और क्यों होता है? और इसका पक्का इलाज़ क्या है, ये हम डॉ भी नहीं जानते हैं |इस रोग से लड़ने और इसकी दवाइयाँ इतनी मंहगी है एक गरीब आदमी के बुते के बाहर की बात है |
ऐसे ही एक दिन रात को जब असीम होस्पिटल पहुँचा तो शमशाद ने उसे कमरे मे बुलाया और कहा " आप इतनी महेनत करते हो पर आपको पता है ना कि मैं अब बचने वाली नहीं हूँ............. "
............शमशाद की पूरी बात सुने बिना ही असीम गुस्से में बुदबुदाते हुए कि 'देखता हूँ कि तुम्हें मुझ से कौन छिनता है' कमरे से बाहर निकल गया |
शमशाद ने एक फीकी सी मुस्कराहट के साथ अपनी आँखें बंध कर ली ..
दूसरे दिन सुबह की शिफ्ट खत्म करके असीम होस्पिटल मे आया, पर कमरे मे जाने से पहले उसने सोचा कि अम्मी रोज़ अच्छे खाने के लिए हमीद को बहलाती रहती है तो क्यों ना आज मैं ही उसके लिए कुछ खाने के लिए अच्छा से ले जाऊँ |उसे पता था कि अम्मी रोज़ उसे बस ये ही बात कहती थी कि जब तुम्हारी अम्मी ठीक हो जाएगी तब हम सब अच्छा खाना खाएँगे .....जब हम अम्मी को छुट्टी करवा कर घर ले जाएंगे... उस दिन हम घर पर ही चिकन बना कर खाएँगे '.......ये ही सोचते हुए वो केंटिन की तरफ बढ़ा |
वो केंटिन की तरफ बढा .. केंटिन मे जा के उसने देखा तो सामने अम्मी और हमीद एक टेबल पे बैठे थे.. हमीद की थाली मे चिकन सेंडविच था और वो उसे बहुत स्वाद से खा रहा था और अम्मी उसे अपनी भीगी आँखों से एकटक निहार रही थी |
कुछ अनहोनी के डर से वो अम्मी और हमीद के करीब गया तो हमीद उसे देखते ही चहकते हुए बोला '' अब्बा देखिए आज दादीजान ने मुझे चिकन सेंडविच खिलाया और आपको पता है आज हम अम्मी को अपने घर भी ले जा सकते हैं''................
असीम ने तुरंत सलमा को देखा तो सलमा की आँखों से आँसू बहने लगे और असीम सोचने लगा कि आज तो शमशाद भी बहुत खुश होगी कि आज बहुत दिनों के बाद उसके बेटे की अच्छा खाना खाने की इच्छा भी पूरी हुई ...............भले ही हमीद की ये ख़्वाहिश उसके जाने के बाद ही पूरी हुई थी ||
written by neeta kotechaa "nityaa"
अनुवाद .........अंजु चौधरी अनु








(चित्र गुगल साभार )

8 comments:

मुकेश कुमार सिन्हा said...

बेहतरीन

कमल said...

_/\_

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत बढ़िया

अरुण चन्द्र रॉय said...

मार्मिक कहानी। अनुवाद अच्छा है।

अरुण चन्द्र रॉय said...

आशा और जीवन से पूर्ण बहुत दिनों बाद आपको पढ़ रहा हूँ। अब नियमित समझे मुझे।

dj said...

आँखों को नाम कर देने वाली मार्मिक कथा।
इसका हिंदी अनुवाद हमारे समक्ष प्रस्तुत करने हेतु बहुत बहुत आभार ।

Tayal meet Kavita sansar said...

बहुत ही भाव पूर्ण

Unknown said...

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