क्षितिजा ...मेरी बाल्यावस्था
कस्तूरी ... लेखन का यौवन रूप रंग लिए
अरुणिमा ...एक परिपक्व सोच ...
बहुत दुःख होता है जब एक पढ़ा लिखा इंसान ...किसी भी भाषा पर कोई टिप्पणी करता है और उसके लेखन पर उँगलियाँ उठायी जाती हैं .बहुत दिनों से इस बारे में लिखने के लिए सोच रही थी ,बहुत से लोगों को देखा और पढ़ा कि जिसका मन आता है वो लेखन के कार्य या लेखन से जुड़े संपादन को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक कुछ भी कह देता है पर अभी यहाँ पहले मैं बात करुँगी ....भाषा की .हर भाषा का अपना सम्मान है ये बात हम सबको समझनी होगी ....हिन्दुस्तान एक ऐसा मुल्क है जहाँ हर कुछ km के बाद भाषा बदल जाती है इसका मतलब ये नहीं कि आपको जिस भाषा में महारत हासिल है उसके अतिरिक्त आप दूसरों की भाषा को अपने भद्दे शब्दों से नवाज़ देंगे .....अपनी भाषा को महान और दूसरे हो हीन समझने वालो से मेरा बस एक ही प्रश्न है ...कि क्या आप अपनी सभ्य भाषा सीख कर पैदा हुए थे और कैसे पढ़े लिखे इंसान है आप लोग ...जो दूसरों की भाषा को ,उनकी बातों को और उनके द्वारा किए गए कार्यों की सरहना नहीं कर सकते ...आप का बड़प्पन तब होता जब आप अपने से कमतर को अपने साथ लेकर चलते ...उन्हें अपनी भाषा और अपने जितना ही सम्मान देते ...चलिए सम्मान ना सही ...पर अपने शब्दों से उन्हें और उनके आत्मविश्वास को खंडित ना करते ...ये कैसी पढ़ाई है ...ये कैसा भाषा का फर्क है जो हम इंसानों को ही बांटने पर तुली है | मुझे यहाँ कहने पर ज़रा भी अफ़सोस नहीं है कि ...हमारे यहाँ के पढ़े लिखे तबके से अच्छे बाहर के मुल्क के अनपढ़ लोग है ...जो भाषा ना समझ आने पर भी ईशारो से आपको बात समझा देते है और आपकी बात समझ लेते हैं | यहाँ एक बात उदारहण दे कर जरुर कहूँगी ...कि कुछ साल पहले मैं और मेरे पति ..सिंगापुर ...स्टार क्रूज (ship)पर घूमने गए थे ..वहाँ हर काम कार्ड से होता था ...कमरे से लेकर ...खाना पीना और शौपिंग भी ,अगर कार्ड नहीं तो आप वापिस बिना कार्ड के उस शिप से सिंगापुर शहर भी नहीं जा सकते थे ...और वो ही कीमती कार्ड मेरे पति से कहीं खो गया ...हम दोनों के अलावा वहाँ के अन्य लोग भी परेशां हो गए ....सबने मिल कर कार्ड ढूंढा पर वो नहीं मिला ...तो किसी की सलाह पर हमने फिर से कार्ड बनवाने की कोशिश की ...अब इस में अड़चन ये थी कि ...सिंगापुर ...स्टार क्रूज शिप पर काम करने वाले वर्करों को इंग्लिश नहीं आती थी और हमको वहाँ की भाषा थाई समझ नहीं आ रही थी | टूटी फूटी हिंदी और ईशारो से हमने उन्हें अपनी बात समझा दी ...मज़े की बात तो देखिए ...वो हिंदी ...भले ही टूटी-फूटी ही सही , समझ गए ...जब कि मैं उस वक्त लगातार उन्हें इंग्लिश में बात समझाने की बहुत कोशिश कर रही थी ...वही ...मेरे पति जिनका इंग्लिश को लेकर ज्ञान ...बहुत कम है ...उन्होंने उस वर्कर को अपने इशारों और टूटी-फूटी हिंदी में इतने अच्छे से बात समझा दी कि मुझे उस वक्त अपने पति पे गर्व महसूस हो रहा था ...और उन्हें इंग्लिश ना आने का मलाल उस वक्त रत्तीभर भी नहीं था ....उस वक्त ये बात हमने बहुत हल्के से ली थी ....पर आज जब भी इस बात को याद करती हूँ तो मन में सोचती हूँ कि ...उफ़ पढ़े लिखे अनपढ़ अगर ये हिंदी ना होती तो ...तुम इंग्लिश बोलने वालो को आज कौन पहचानता ? इंग्लिश इंग्लिश कहने वाले ये क्यों भूल जाते है कि इंग्लिश को हिन्दुस्तान ई ज़मीन पर हिंदी ने ही जन्म दिया है तो हिंदी माँ हुई इस इंग्लिश की ,और आज बेटा ही अपनी माँ को बुरा कहता है ,गालियाँ देता है ...कैसा वक्त आ गया है कि सच में बहुत अफ़सोस होता है कि जब अपने ही देश में हिंदी और क्षेत्रीय भाषा को हीनभावना से देखा जाता है ...हम ये क्यों भूल जाते है कि जब भी हम अपने देश के किसी भी पाँच सितारा होटल में जाते हैं तो वहाँ दरबान से लेकर स्वागत करने वाले हमको नमस्ते करते है ...और हिंदी में ही कहते और पूछते है कि ''स्वागत है आपका ...हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ?''......बाकि इंग्लिश बाद में आती है .....इसके बाद मुझे नहीं लगता की हम हिंदी को निम्न स्तरीय भाषा का स्तर दे || संस्कृत ,उर्दू ,पंजाबी, कश्मीरी ,गुजरती ,उड़िया ,असमिया ,भोजपुरी आदि ...हर क्षेत्र की अपनी भाषा से ही पहचान है ....फिर सिर्फ हिंदी को ही निशाना क्यों बनाया जाता है .....क्या ये सच में इतनी खराब है कि हम सब इस से बचते है ....फिर क्यों एक बच्चा सबके पहले माँ...बुआ .तातातातातात ..दादी या दादू ...क्यों बोलता है ...वो mom(मोम)...आंटी या अंकल क्यों नहीं बोलता ???????और सबसे बडी बात ...हिंदी को निम्न बताने वाले हमेशा गालीगलौच हिंदी में या अपनी क्षेत्रीय भाषा में क्यों देते है ? इंग्लिश में गाली देना बर्जित है क्या ...या इंग्लिश में गाली ,गाली नहीं लगती ?
जल उठे नयन में स्वप्न
जीवन मेरा निष्कंप
लौं से मिल गई लौं
चमक उठी बिजलियां
पथ के रथ चक्रों से
लपटों को ओढ़
निशा भी अब है मुस्काई ||
अंजु (अनु)
कस्तूरी ... लेखन का यौवन रूप रंग लिए
बहुत दुःख होता है जब एक पढ़ा लिखा इंसान ...किसी भी भाषा पर कोई टिप्पणी करता है और उसके लेखन पर उँगलियाँ उठायी जाती हैं .बहुत दिनों से इस बारे में लिखने के लिए सोच रही थी ,बहुत से लोगों को देखा और पढ़ा कि जिसका मन आता है वो लेखन के कार्य या लेखन से जुड़े संपादन को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक कुछ भी कह देता है पर अभी यहाँ पहले मैं बात करुँगी ....भाषा की .हर भाषा का अपना सम्मान है ये बात हम सबको समझनी होगी ....हिन्दुस्तान एक ऐसा मुल्क है जहाँ हर कुछ km के बाद भाषा बदल जाती है इसका मतलब ये नहीं कि आपको जिस भाषा में महारत हासिल है उसके अतिरिक्त आप दूसरों की भाषा को अपने भद्दे शब्दों से नवाज़ देंगे .....अपनी भाषा को महान और दूसरे हो हीन समझने वालो से मेरा बस एक ही प्रश्न है ...कि क्या आप अपनी सभ्य भाषा सीख कर पैदा हुए थे और कैसे पढ़े लिखे इंसान है आप लोग ...जो दूसरों की भाषा को ,उनकी बातों को और उनके द्वारा किए गए कार्यों की सरहना नहीं कर सकते ...आप का बड़प्पन तब होता जब आप अपने से कमतर को अपने साथ लेकर चलते ...उन्हें अपनी भाषा और अपने जितना ही सम्मान देते ...चलिए सम्मान ना सही ...पर अपने शब्दों से उन्हें और उनके आत्मविश्वास को खंडित ना करते ...ये कैसी पढ़ाई है ...ये कैसा भाषा का फर्क है जो हम इंसानों को ही बांटने पर तुली है | मुझे यहाँ कहने पर ज़रा भी अफ़सोस नहीं है कि ...हमारे यहाँ के पढ़े लिखे तबके से अच्छे बाहर के मुल्क के अनपढ़ लोग है ...जो भाषा ना समझ आने पर भी ईशारो से आपको बात समझा देते है और आपकी बात समझ लेते हैं | यहाँ एक बात उदारहण दे कर जरुर कहूँगी ...कि कुछ साल पहले मैं और मेरे पति ..सिंगापुर ...स्टार क्रूज (ship)पर घूमने गए थे ..वहाँ हर काम कार्ड से होता था ...कमरे से लेकर ...खाना पीना और शौपिंग भी ,अगर कार्ड नहीं तो आप वापिस बिना कार्ड के उस शिप से सिंगापुर शहर भी नहीं जा सकते थे ...और वो ही कीमती कार्ड मेरे पति से कहीं खो गया ...हम दोनों के अलावा वहाँ के अन्य लोग भी परेशां हो गए ....सबने मिल कर कार्ड ढूंढा पर वो नहीं मिला ...तो किसी की सलाह पर हमने फिर से कार्ड बनवाने की कोशिश की ...अब इस में अड़चन ये थी कि ...सिंगापुर ...स्टार क्रूज शिप पर काम करने वाले वर्करों को इंग्लिश नहीं आती थी और हमको वहाँ की भाषा थाई समझ नहीं आ रही थी | टूटी फूटी हिंदी और ईशारो से हमने उन्हें अपनी बात समझा दी ...मज़े की बात तो देखिए ...वो हिंदी ...भले ही टूटी-फूटी ही सही , समझ गए ...जब कि मैं उस वक्त लगातार उन्हें इंग्लिश में बात समझाने की बहुत कोशिश कर रही थी ...वही ...मेरे पति जिनका इंग्लिश को लेकर ज्ञान ...बहुत कम है ...उन्होंने उस वर्कर को अपने इशारों और टूटी-फूटी हिंदी में इतने अच्छे से बात समझा दी कि मुझे उस वक्त अपने पति पे गर्व महसूस हो रहा था ...और उन्हें इंग्लिश ना आने का मलाल उस वक्त रत्तीभर भी नहीं था ....उस वक्त ये बात हमने बहुत हल्के से ली थी ....पर आज जब भी इस बात को याद करती हूँ तो मन में सोचती हूँ कि ...उफ़ पढ़े लिखे अनपढ़ अगर ये हिंदी ना होती तो ...तुम इंग्लिश बोलने वालो को आज कौन पहचानता ? इंग्लिश इंग्लिश कहने वाले ये क्यों भूल जाते है कि इंग्लिश को हिन्दुस्तान ई ज़मीन पर हिंदी ने ही जन्म दिया है तो हिंदी माँ हुई इस इंग्लिश की ,और आज बेटा ही अपनी माँ को बुरा कहता है ,गालियाँ देता है ...कैसा वक्त आ गया है कि सच में बहुत अफ़सोस होता है कि जब अपने ही देश में हिंदी और क्षेत्रीय भाषा को हीनभावना से देखा जाता है ...हम ये क्यों भूल जाते है कि जब भी हम अपने देश के किसी भी पाँच सितारा होटल में जाते हैं तो वहाँ दरबान से लेकर स्वागत करने वाले हमको नमस्ते करते है ...और हिंदी में ही कहते और पूछते है कि ''स्वागत है आपका ...हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ?''......बाकि इंग्लिश बाद में आती है .....इसके बाद मुझे नहीं लगता की हम हिंदी को निम्न स्तरीय भाषा का स्तर दे || संस्कृत ,उर्दू ,पंजाबी, कश्मीरी ,गुजरती ,उड़िया ,असमिया ,भोजपुरी आदि ...हर क्षेत्र की अपनी भाषा से ही पहचान है ....फिर सिर्फ हिंदी को ही निशाना क्यों बनाया जाता है .....क्या ये सच में इतनी खराब है कि हम सब इस से बचते है ....फिर क्यों एक बच्चा सबके पहले माँ...बुआ .तातातातातात ..दादी या दादू ...क्यों बोलता है ...वो mom(मोम)...आंटी या अंकल क्यों नहीं बोलता ???????और सबसे बडी बात ...हिंदी को निम्न बताने वाले हमेशा गालीगलौच हिंदी में या अपनी क्षेत्रीय भाषा में क्यों देते है ? इंग्लिश में गाली देना बर्जित है क्या ...या इंग्लिश में गाली ,गाली नहीं लगती ?
जैसे चप्पल अब विरोध का
प्रतीक बन गई है. बुश, चिदंबरम और कई दूसरी नामी हस्तियों को चप्पल मारी
गई उसी तरह इंग्लिश जानने वाले और बोलने वालो ने हिंदी को गाली देने का बीड़ा
भी उठा लिया है ....फिर भी मैं ये ही कहूँगी कि ये हिंदी मेरी है.....गर्व
है मुझे की मैं हिंदी में लिखती हूँ......और हिंदी से ही मेरी पहचान है |
अब बात आती है लेखन की ...लेखन और संपादन को ना समझने वालो से मैं बस इतना ही कहूँगी कि लिखना यानी कि खुद को खुद में खो देना ,शब्दों से खेलना ,उन्हें सोचना और फिर मन के भाव बना कर एक कागज़ पर उतार देना ...मन के भाव और शब्द मिल कर एक कविता या एक कहानी को जन्म देते है और जन्म लेना वाला अपनी हर अवस्था से गुज़रता है ...पैदा होते ही कोई भी बच्चा भागने नहीं लगता ,उसे भागने के लिए एक साल तक का इंतज़ार करना होता है ...फिर हम ये कैसे सोच लेते है कि लिखने वाला लिखना शुरू करते ही सबका गुरु बनके हम सबके बीच आएगा ...अरे भाई ...उसे भी अपने आप को निखारने में वक्त तो लगेगा ना |
और हर लिखने वाले को मैं ये जरुर कहूँगी कि......लिखने वाला /
वाली ..कभी अपने विचारों को दबाएँ नहीं उसे निरंतर लिखते रहे ,लिखना मंजिल
नहीं ..कोई गंतव्य नहीं वो तो एक साधना है ,एक अनंत यात्रा जिस पर कदम दर कदम हमको आगे बढ़ना है |लिखना
बुद्धूपन जरुर है पर पाप नहीं ...पर लेखन और संपादन पर कटाक्ष करने वाले
इसे पाप घोषित करने में लगे हुए हैं ,जो शब्द गीत बनने की ताकत रखते हैं
,उन्हें गाली बना का पेश किया जा रहा है ...ठीक है हम ये बुद्धूपन में ही
खुश है ,कम से कम इस में एक आत्मा को खुशी देने का
गुर तो है ,इसमें किसी के लिए जीवनभर की खुशी तो छिपी है ,एक ताजगी का
अहसास है जो जीवन में आगे बढ़ने का हौंसला देता है | इस क्षेत्र में सबकी
अपनी अपनी ज़मी है जिस पर कभी कविता तो कभी लेख ...तो कभी कभी कहानी जन्म लेती है.....सबके रंग रूप अलग अलग है पर विचारों की प्रभुता वही है जो मेरे मन में ...जो आपके मन में है ..फर्क बस सोच का है |मेरी कहानी (कमला दास ),एक नौकरानी की डायरी (कृष्ण बलदेव वैद),द्रौपदी (प्रतिभा राय )नौकर की कमीज (विनोद कुमार शुक्ल )स्पाउस शादी का सच (शोभा डे ) ये कुछ नाम है जिन्होंने ये सोच कर नहीं लिखा था कि वो लिखते ही हिट हो जाएंगे ...बस उन्होंने अपने मन की बातों को लिख दिया और ना ही ये पैदा होते ही लिखने लगे थे ....वक्त के साथ साथ इनके लेखन ने गति पकड़ी और ये लोग स्थापित होते चले गए |इसी विश्वास के साथ कि ...''एक मुट्ठी आसमां मेरा भी ''....अपने लेखन को कायम रखे ||अब बात आती है लेखन की ...लेखन और संपादन को ना समझने वालो से मैं बस इतना ही कहूँगी कि लिखना यानी कि खुद को खुद में खो देना ,शब्दों से खेलना ,उन्हें सोचना और फिर मन के भाव बना कर एक कागज़ पर उतार देना ...मन के भाव और शब्द मिल कर एक कविता या एक कहानी को जन्म देते है और जन्म लेना वाला अपनी हर अवस्था से गुज़रता है ...पैदा होते ही कोई भी बच्चा भागने नहीं लगता ,उसे भागने के लिए एक साल तक का इंतज़ार करना होता है ...फिर हम ये कैसे सोच लेते है कि लिखने वाला लिखना शुरू करते ही सबका गुरु बनके हम सबके बीच आएगा ...अरे भाई ...उसे भी अपने आप को निखारने में वक्त तो लगेगा ना |
जल उठे नयन में स्वप्न
जीवन मेरा निष्कंप
लौं से मिल गई लौं
चमक उठी बिजलियां
पथ के रथ चक्रों से
लपटों को ओढ़
निशा भी अब है मुस्काई ||
अंजु (अनु)