Friday, July 31, 2009
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ..
वो कागज़ कि कश्ती ...
वो बारिश का पानी ...
कितन अच्छा तो वो बच्चपन का
खेलना ...मस्ती भरे दिन थे ..मौजो की थी राते
ना कुछ सोचना....न कोई चिंता ...
मस्त मौला सा था सब वातावरण
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ....
क्यों हम बड़े हो गए है ..
दुनिया की रीत में खो गए है
क्यों हम भी मशीनी हो गए है
खो गया है भावनायो का समंदर ...
क्यों अपने भी अब बेगाने हो गए है
क्यों यहाँ बेगाने अपने हो गए है ...........
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ..
कम से कम दिल के सचे तो होते
अब देखो झूठ से लबालब हो गए है ..
चापुलूसी के घने जंगल में गहरे खो गए है
भटक गए है काया और माया के जाल में
यहाँ आके सब खूबसूरती के दंगल में फंस गए है
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते .....
लड़ते झगड़ते पर साथ तो रहते
पर अब तो सब्र का पैमाना यू छलकता है
किसीकी छोटी सी बात भी नश्तर सी लगती है
तोडी सब्र की सारी सीमायें ...
हर दोस्त को दुश्मन बनाते चले गए ...
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ....
खेलते वो खेल जो मन में आता हमारे
कम से कम दिलो से तो ना खेलते थे हम ..
कभी छिप जाते ...कभी रूठ जाते
कम से कम संगी साथी हमहे
कही से भी ढूंढ़ तो लाते..
मानते हमहे साथी मिन्नतें करके
परअब क्या किसी से रूठना .और क्या है किसी को मनाना
कौन है अब जिस है अपना बनाना ...
हम पहले भी अकेले थे....और
अब भी अकेले है ......
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ...........
(.....कृति ...अनु..(अंजु)..)
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10 comments:
Sach Acha hota agar hum bache hote,
lekin ye bhi sach hai ki nahi hain ab
,
par aapne jo likha dil ko chhu gayaa
keep it up
God Bless you always
bahut achee kavita lagee shubh kaamanayen
बह गया था उस दिन नजाने किस हवा में
कीथी शिकायत तुझसे तू भी एक औरत है
है तू सदा ही मुझ से कुछ छुपाती सी हँस
कर तुने बातों को मुझसे टाला था माना
मैं नहीं समझा औरत के दर्द क्यों छुपाना
चाह रहे मुझसे अपने दिल के जखम मरहम
नहीं पर शायद दिलों को संभालना तो सिखा
तुझसे क्या नहीं समझा था लायक मुझे इसके
मुझ में आंसू नहीं ये सच है कठोर धरा पे गिर
संभला मैं रोना भी ठीक से न सीख पाया था
तुझे तेरे इन आसुओं की कसम देना चाहता
था मगर तेरी सदा की हसी ने मेरे अन्तर मन
को रोका था न ठोकर लग लाये दुबारा तेरे कोमल
मन को बार बार दिल चाहे कहूँ कैसे थाह पाना
चाहूँ खुदा भी तेरी खूबी न नाप पाया तू तो
औरत है यार मेरी सच मैं दोस्ती तेरी भी कभी
समझा पाया तेरे छुपे मन में मेरे लिए दुवाओं के
अदभुत असर को कभी उदंड मन के उत्कंठाओं को
विभस्त न बनने देकर थमा अपने अन्तर मन की डोर
खीचा हर बार गहरे कूपों से मुझे हँसते हंसते क्यों तेरे
इन कुर्बानियों को मैं समझ नहिन पाता तू औरत है
जगत जननी माता का रूप मन में बसा है अब मन में मेरे
पर जानता नही मैं तेरी हर बात को पर मानता तेरी महानता
थैंक्स डीअर अंजू आप मेरे दोस्त हैं
parstut kavita saddi maasi de blog apno k sath se li gyi hai ,is mein meri anju massi kah rahi hai bachhey kine sachhe te achhey haan,bachho jaise hi saaf dil hona chahida banadya nu ,kyo anju massi theek kahya naa ,wase bahot chalak hagi tu minu choclate nhio leke ditti ,jab aauga to pura choclate da packet luga es wari theek aa,changa apna khayal rakhi
nice je really yee read kar kar to bachpan me fir see janee kee yaad aa gayee anju , bhut acche kavita likhi hai yee,
aap ki har ek rachna ek se badhkar ek hai ... bahut khoob anju ji ...
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 28 - 07- 2011 को यहाँ भी है
नयी पुरानी हल चल में आज- खामोशी भी कह देती है सारी बातें -
वाह ...बहुत ही बढि़या ।
बहुत बढ़िया।
सादर
बचपन सच ही बेफिक्र होता है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
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