Thursday, April 24, 2014

रोशनियाँ




टिमटिमाती  रोशनियाँ
और जंगल की आग का 
धुआँ 
सड़कों से गुजरती  गाड़ियाँ
और इन सबका शोर 
उसके कानों में 
फुसफुसाता है 
अपने व्यवस्ता की दास्तां 

एक अजीब सा शोर 
एक अजीब सी घुटन 
उसकी आँखों में काँपती है 

और फिर एक ऊँची आवाज़ 
ज़ार-ज़ार 
खड़खड़ाती सी 
उसे भेदती हुई 
आर-पार हो जाती है 
उसे अकेला कर देने के लिए 
बस इतना ही काफी है ||
-- 
अंजु चौधरी (अनु )

15 comments:

मुकेश कुमार सिन्हा said...

अजीब सा शोर हर तरफ फैलता हुआ गूँजता हुआ ............. कान फट न जाए :)

बढ़िया !!

ved vyas malik said...

Jub dil kampkapata he kisi ke hukm se,tou apne pan ka ehsas mun me ubhar ban ke baki sub shorr bhula deta hai

डॉ. मोनिका शर्मा said...

मर्मस्पर्शी.....

Maheshwari kaneri said...

बहुत सुन्दर ..मर्मस्पर्शी.....

Rajendra kumar said...


आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (25.04.2014) को "चल रास्ते बदल लें " (चर्चा अंक-1593)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

कौशल लाल said...

बहुत सुन्दर....

Amrita Tanmay said...

उम्दा लिखा है.

आशीष अवस्थी said...

बढ़िया प्रस्तुति , सुंदर शब्द अनुभूति , अनु जी धन्यवाद !
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નીતા કોટેચા said...

bahuut achche annu

डॉ. जेन्नी शबनम said...

भावपूर्ण रचना, बधाई.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

शोर में भी आज मिलता है अकेलापन । इस व्यथा को बखूबी उकेरा है

Anonymous said...

very beautifully expressed...

दिगम्बर नासवा said...

सब कुछ करने के बाद अगर अपनों का साथ न मिले तो कुछ भी करना व्यर्थ ही लगता है ... मर्म को छूती हुई ...

Anita said...

आज के यथार्थ को व्यक्त करता हुआ कथ्य..

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही खूबसूरत कविता