Friday, December 26, 2008
उन्मुक्त आकाश मै उड़ने चली थी सपनो के पंख लगा ................................................
उन्मुक्त आकाश मै उड़ने चली थी
सपनो के पंख लगा
गेरो की भीड मे..
किसी अपने को तलाशने चली थी
आती हुई तेज हवायो से
किसी कटी पतंग सी ...मै कटती चली गयी ..
आती हुई तेज हवायो ने कतरे
मेरे भी पंख ..
हकीकत के धरातल पर ..
मै औंधी मुंह ...
गिरती चली गयी ..
उन्मुक्त आकाश मै उड़ने चली थी
सपनो के पंख लगा ....................
मै अपने खुद के रिश्ते
धुंधले करती चली गयी ..
मै अपनी बातो से
किसी के दिल मै बसने चली थी ...
पर अब ......
अपनी ही नजरो से गिरती चली गयी ......
उन्मुक्त आकाश मै उड़ने चली थी
सपनो के पंख लगा ........................
........(कृति......अनु.......)
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